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________________ खण्ड : सप्तम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम है। आत्मा भव-भवान्तर में सदैव अपने रूप में विद्यमान रहती है, शरीर तो कर्मानुसार भिन्न-भिन्न रूप में परिणत-विपरिणत होता रहता है। जो देह, बन्धु-बान्धव, वैभव आदि से आत्मा को भिन्न देखता है उसके हृदय को शोकरूपी शल्य कभी पीड़ित नहीं कर पाता।17 सांसारिक जन के मन में यह भ्रान्तिपूर्ण भावना बद्धमूल रहती है कि परिवार, . सम्पत्ति, वैभव आदि सब उनके अपने हैं। अपने लिए उपयोगी हैं। अतएव वे उनके सुख में सुखी और उनके दुःख में दु:खी बने रहते हैं। परस्पर बड़ी आशायें संजोये रहते हैं। इस अतात्त्विक-अवास्तविक से तादात्म्य भाव का उन्मूलन अन्यत्व भावना का लक्ष्य है। मानव विचार करे कि वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त जो भी है वह स्वकीय बोध का उद्गम करता है, परगत आस्था का अपगम करता है। जब ऐसा भाव अन्त:करण में उदित, अभिवर्धित होता जाता है तो साधक विभावावस्था से पृथक होता जाता है। यह पार्थक्य उसे आत्मबोध के साथ योजित करता है जिससे उसकी ध्यान-साधना सम्बल प्राप्त करती है। 6. अशुचि भावना : _आत्मतत्त्व के शुद्ध स्वरूप की अनुभूति कराने हेतु विविध अपेक्षाओं से इन भावनाओं का विवेचन किया गया है। अशुचि भावना के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने देह के रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र, आन्त्र एवं विष्ठा आदि से युक्त देह के जघन्य स्वरूप का विवेचन किया है। जो शरीर बाहर से सुन्दर रूप वाला और मनोज्ञ प्रतीत होता है, उसकी वास्तविक स्थिति बड़ी घृणास्पद है। ऐसे अपावन, अपवित्र, अशुचि देह में शुचिता, सुन्दरता की कल्पना मात्र एक विडम्बना है। 8 दैहिक सुख, सज्जा, शोभा आदि के मोह में विमूढ़ बने मानव को वास्तविकता का दर्शन कराकर शुद्ध आत्मस्वरूप की ओर मोड़ने का बड़ा तीव्र भाव इस भावना में सन्निहित है। इसकी अनुभूति करने से मानव को यह सहज ही हृदयंगम हो जाता है कि समग्र बाह्य आकर्षण केवल इन अशुचि पदार्थों पर लगे हुए चर्म के आवरण के कारण है। ऐसा भाव जब जागृत होता है तो ध्यान साधना में बाधा उपस्थित करने वाले सभी SHAILANNELRABHARE - 17. वही, 4.70-71 18. वही, 4.72-73 ~ ~~ ~~ ~ ~~~~~ ~~- 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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