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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
का नाश होता है। आचार्य हरिभद्र के विचार से योग का अर्थ है धर्मव्यापार, आध्यात्मिक भावना और समता का विकास, मनोविकारों का क्षय तथा मन, वचन और कर्म का संयमन, तन्मूलक समस्त धर्मव्यापार।
___ योग शब्द युज् धातु में घञ् प्रत्यय के योग से निष्पन्न है। युज् अर्थात् जोड़ना। मोक्ष के साथ जिस कार्य से जुड़ा जा सके वह योग है। "मोक्षेण योजनाद् योगः" पाणिनीय व्याकरण में युज् धातु का प्रयोग तीन अर्थों में हुआ है - 1. युज् - समाधौ 2. युजिर् - योगे 3. युज् संयमने।
इन तीनों धातुओं से अलग - अलग बने हुए योग शब्द का अर्थ क्रमश: समाधि, जोड़, संयमन होता है। संस्कृत वाङ्मय में इन तीनों अर्थों वाले योग शब्द का प्रयोग होता रहा है।
ध्यान का महत्त्व :
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्मज्ञान से कर्मक्षय होता है और ध्यान से आत्मज्ञान प्राप्त होता है अतएव आत्मा के लिए ध्यान हितकारी है।' बिना ध्यान के आत्मदर्शन नहीं होता, ध्यान से ही आत्मा का शुद्ध प्रतिभास होता है। अर्थात् मोक्ष चाहने वाले साधक के लिए ध्यान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यह ध्यान समत्व की जागृति के अभाव में नहीं हो सकता अर्थात् चित्त को एकाग्र, समभाव में स्थिर किये बिना ध्यान करना व्यर्थ है और ध्यान के बिना निश्चल समत्व की प्राप्ति संभव नहीं। ध्यान और समत्व एक दूसरे के कारण हैं। समत्व भाव की प्राप्ति के बाद ध्यान प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए। ध्याता के प्रकार :
ध्यान करने वाले दो प्रकार के होते हैं - 1. सयोगी और 2. अयोगी
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योगबिन्दु, 32 योगशास्त्र, 4.113. . ज्ञानसागर, 36 योगशास्त्र 4.114
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