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जैन आचार्यों ने भी स्वतंत्र रूप से जैन योग पर ग्रन्थ लिखे । उनमें ध्यान का विशेष रूप से विस्तार पूर्वक अपने मौलिक चिन्तन को जोड़ते हुए जो विशद रूप में प्रतिपादन किया, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन महान् लेखकों में स्वनामधन्य आचार्य श्री हरिभद्र सूरि, आचार्य श्री हेमचन्द्र, आचार्य श्री शुभचन्द्र, आचार्य श्री सोमदेव एवं उपाध्याय श्री यशोविजय आदि के नाम प्रमुख रूप से लिए जा सकते हैं।
यह लिखते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है कि साध्वी जी श्री डॉ. उदित प्रभाजी म. सा. 'उषाजी' ने "जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम'' नामक अपने पी. एच. डी. के शोध-ग्रन्थ में आगमकाल से लेकर अब तक ध्यान योग का जो विकास हुआ है, उसका तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक दृष्टि से जो निरूपण किया है, वह वास्तव में उनके गहन अध्ययन एवं वैदुष्यपूर्ण श्रम का सूचक है। उन्होंने आगमों के उन बहुत से प्रसंगों को खोज निकाला है, जहाँ ध्यान के संदर्भ में ऐसे संकेत आए हैं, जो उसके उत्तरकालीन विकास के बीज कहे जा सकते हैं। उन्होंने आचार्य श्री हरिभद्र सूरि द्वारा रचित योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक तथा योगविंशिका और उनकी अन्य रचनाओं में आए हुए ध्यान विषयक प्रसंग, आचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र, आचार्य शुभचन्द्र प्रणीत ज्ञानार्णव, आचार्य सोमदेव द्वारा रचित योग मार्ग एवं उपाध्याय यशोविजय द्वारा निर्मित अध्यात्मसार, पातंजल योग टीका, इनके अतिरिक्त अन्यान्य जैन आचार्यों तथा विद्वानों द्वारा रचित ध्यान-स्तव, ध्यानशतक, ध्यान-दीपिका आदि ग्रन्थों का शोधात्मक दृष्टि से परिशीलन कर जैन परंपरा में उत्तरोत्तर विकासशील ध्यान का जो विवेचन किया है, वह वास्तव में जैन योग के संदर्भ में उनका महत्त्वपूर्ण कृतित्व है।
उनके इस सारस्वतः उपक्रम में, शोध-कार्य में मुझे भी उन्हें सहयोग करने का, मार्ग दर्शन देने का अवसर प्राप्त हुआ है, जो मेरे लिए हर्ष का विषय है। भारतीय विद्या के अन्तर्गत योग-विशेषतः जैन योग मेरा अत्यन्त प्रिय विषय है, जिस पर मैं लगभग अर्द्ध शताब्दी से अध्ययनरत हूँ |
साध्वीजी ने प्रस्तुत विषय पर अहर्निश परिश्रम करते हुए जो महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य किया है, वह उनके अपने साधना-प्रवण जीवन के लिए तो श्रेयस्कर है ही, ध्यान-योग के क्षेत्र में गहन अध्ययन एवं अनुसंधान करने वालों के लिए भी वास्तव में प्रेरणास्पद है। साध्वीजी को अपनी गुरुणीवर्या
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