________________
खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
~
मति-श्रुत आदि पाँच ज्ञानों द्वारा जिन्होंने समस्त पर्यायों को जान लिया है, वे जो किसी भी तत्त्व पर अपनी स्थिरता या एकाग्रता साध चुके हैं ऐसे ध्यान योगियों का मन धर्मध्यान में लीन रहता है। मन की चंचलता का नाश हो जाने से वे मोह को जड़ से उखाड़ डालते हैं। 128
धर्मध्यान के निरन्तर धाराप्रवाह अभ्यास द्वारा जिन्होंने उत्कृष्ट स्थिरता प्राप्त कर ली है, जिन्होंने श्वासोच्छ्वास की उर्मि-लहर के पीड़ा रहित हो जाने से जिन्होंने आसन-विजय कर लिया है, शुभ-अशुभ रूपी दो प्रकार के कर्म रूपी जल को बहा कर लाने वाली मन:प्रवृत्ति को प्रशान्त कर संसार-सागर के तट को प्राप्त कर लिया है, ऐसी मन:स्थिति हो जाने पर ध्यान योगी शुक्ल ध्यान को सिद्ध करने में समर्थ हो जाते हैं।129
धर्मध्यान की साधना के अन्तर्गत प्राणवायु के संचारनियमन, क्रमप्रवाह के संशोधन, मानसिक स्थिरता और प्रसन्नता के सम्पादन द्वारा ध्यान में उत्तरोत्तर ऊँची स्थिति करता हुआ योगी शुक्लध्यान की वरेण्य स्थिति प्राप्त कर लेता है। परिष्कृत एवं परिशोधित आत्मोद्यम द्वारा वह उसे साध अग्रसर होता हुआ ऊर्ध्वगामिता कर लेता है।
___ शुक्ल ध्यान के भेदों का अलंकृत एवं प्रांजल भाषा में वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने उस पथ पर आगे बढ़ते हुए साधक का अन्तरात्म भाव से परमात्म भाव की ओर प्रयाण का जो भावचित्र उपस्थित किया है वह एक ओर आध्यात्मिक सामरस्य और दूसरी और साहित्यिक सौन्दर्य का एक विलक्षण समन्वय लिये हुए है।
शुक्ल ध्यान में उत्तरोत्तर ऊर्ध्वगामिता प्राप्त करने वाले जीव के कर्मों का जब सर्वथा क्षय हो जाता है तब एक समय में ही वह लोकाकाश के अग्रभाग में तनुवातवलय में जाकर अवस्थित हो जाता है। वहाँ अन्त में छोड़े गये शरीर से किञ्चित् न्यूनाकृति रहती है। क्योंकि अंतिम औदारिक शरीर में नासिका, कर्ण, उदर आदि अंगों में जो पोल रहती है वहाँ आत्मप्रदेश नहीं रहते हैं।
128. 129.
वही, गा. 22 वही, गा. 24
~~~~~~~~
~~~~~~~
67
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org