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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड: षष्ठ
पर आधारित है।
ध्यान पर अपने उद्गार प्रकट करते हुए आचार्य भास्करनन्दि ने कहा है - जिसकी दृष्टि सम्यक् है, जो आसक्तिवर्जित है, वह तत्त्वविज्ञानपूर्वक शुद्ध ध्यान के उपयोग से ही आत्मसिद्धि या आत्मस्वरूपोपलब्धि कर सकता है।
यदि ध्यान में स्थित साधक की आत्मा में ज्ञानात्मा अवभासित नहीं होती. चिन्मय आत्मा का अनुभव नहीं होता तो वह ध्यान वास्तविक ध्यान नहीं है। वह मोहात्मक है।
. यदि एक ध्येय पर स्थित ध्यान में भिन्न-भिन्न आलम्बन चिन्तन का विषय बनते रहें तो वह ध्यान नहीं है, वह तो जाड्य है, तुच्छता है। जो आत्मा के ज्ञेय स्वभाव को, ज्ञातृत्व भाव को, औदासीन्य को तथा निज स्वरूप को भली भाँति देखता है उस अध्यात्मवेत्ता का आत्मस्वरूप स्पष्टतया प्रकाशित होता है।
ध्यान के भेदों का वर्णन करने से पूर्व ग्रंथकार ने ध्यानयोगी को अवगत कराया है कि आत्मा के चिन्मय स्वरूप का उसे बोध हो तथा ध्यानात्मक एकाग्रता के समान भिन्न-भिन्न आलम्बनों के साथ उसका चिन्तन न जुड़े। आत्मज्ञाता का आत्मेतर तत्त्वों से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा आध्यात्मिक भाव वह लिये रहे तभी उसका भाव, चिन्तन और ध्यान आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कराता है।113
ध्यान के चार भेदों का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि प्रारम्भ के दो आर्त रौद्र संमृति - संसार के, भव-भ्रमण के हेतु हैं और आगे के दो मोक्षपरायण हैं।
प्रारम्भ में उन्होंने आर्तध्यान और रौद्र ध्यान के भेदों का वर्णन किया है। 14
धर्मध्यान के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है- जो धर्मानुप्राणित भावों से संलग्न, एकाग्रचिन्तन धर्मध्यान है, वह चार प्रकार का है। तितिक्षा आदि आत्मगुणों का उसमें समावेश है। वस्तु स्वरूप का वह परिचायक है। अतएव वह उत्तम है। वह सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् व्रत सम्यक् आचार से अनुगत है और मोह और क्षोभ
113. ध्यानस्तव (आचार्य भास्करनन्दि) 3, 5-6 114. वही, 9-12 ~~~~~~~~~~~~~~~ 58 ~~~~~~
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