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________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम विवेचन से प्रकट होता है, अभिप्राय यह है कि अन्य परम्परा में इन तीनों तत्त्वों को लेकर जो वेगोन्नत साधनाक्रम व्याख्यात हुए हैं, उनको यथार्थ रूप में समझकर अपनी साधना की शक्तिमत्ता को संवर्धित करने का एक विशेष भाव तो समुदित होता ही है। साथ-ही-साथ वे अन्त में यह भी कहते हैं कि परमात्मस्वरूप-प्राप्ति रूप सर्वोत्कृष्ट साध्य को साधने का मूल साधन तो आत्म -सामर्थ्य ही है। आत्मशक्ति में और सभी शक्तियों का स्वरूप दर्शन, जिससे यदि लाभ होता हो, तो अंवाछनीय नहीं है। आचार्य शुभचन्द्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, शब्द-साम्राज्य के अधिपति थे। इसलिए उन्होंने जहाँ भी जिस विषय को लिया उसे बड़े ही सुन्दर रूप में समुपस्थित किया। उनकी बहुत बड़ी विशेषता यह है कि तत्त्वदर्शन गर्भित अध्यात्म योग की साधना के विषयों को उन्होंने बड़े ही सरस, ललित, मधुर शब्दों में व्यक्त किया है। तत्त्वदर्शन के साथ उन्होंने कवित्व का जो मणि-काञ्चन संयोग प्रस्तुत किया है, वह अपने आपमें असाधारण है। अध्यात्मयोग तथा ध्यानसाधना से सम्बद्ध विषयों को उन्होंने यद्यपि यथाक्रम तो व्याख्यात नहीं किया किन्तु कोई भी आवश्यक विषय छूटा नहीं है। उन्होंने महर्षि पतंजलि प्रणीत योगांगों को भी दृष्टि में रखा और अपने चिन्तन के अनुरूप उनका, जहाँ-जहाँ जैसा-जैसा समावेश अपेक्षित माना, उपयोग भी किया। जैन साधना को योग की परिपाटी के समकक्ष मौलिक रूप में उपस्थापित करने का उनका प्रयत्न वास्तव में वैदुष्य के साथ-साथ उनके एक महान् अध्यात्मयोगी होने का परिचायक है। 42 सर्गों में लिखा गया यह महाग्रन्थ निस्सन्देह ध्यान द्वारा लभ्य परम ज्ञान का काव्यात्मक तरंगों से उच्छलित महान् सागर है, जिसमें अवगाहन कर जिज्ञासु, मुमुक्षु साधक अमूल्य अध्यात्म तत्त्व रत्न उपलब्ध कर सकते हैं। ध्यानस्तव : ध्यानस्तव आचार्य भास्करनन्दि द्वारा संस्कृत में रचित कलेवर में छोटा सा किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। भास्करनन्दि का समय अनुमान के आधार पर बारहवीं शती का प्रारम्भ माना जाता है। इसमें सौ श्लोक हैं। ग्रन्थकार ने अपने चित्त की एकाग्रता के लिए इनकी रचना की है। जिनदेव के प्रति अपनी विशेष विधा में की गई प्रार्थना के रूप में इस कृति का प्रणयन हुआ है। भास्करनन्दि ने आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थाधिगम सूत्र पर तत्त्वार्थवृत्ति नामक टीका भी लिखी है। उनकी यह कृति उसी ~~~~~~~~~~~~~~~ 57 ~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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