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________________ | हार्दिक प्रेरणास्प्रद * डॉ. छगनलाल शास्त्री संसार में जितने भी प्रकार के प्राणी हैं, उनमें मानव का स्थान सर्वोत्तम माना गया है। मानव मननशील होता है। वह सत्-असत् का भेद करने में सक्षम होता है, किन्तु यह तब होता है, जब उसका विवेक जागृत हो। वीतराग, सर्वज्ञ महापुरुषों ने, महान् ज्ञानिजनों ने, अनुभव-निष्णात संतों ने मानव को विवेक-जागरण और आत्मोत्थान का जो पथ बतलाया, वही धर्म के नाम से विश्रुत हुआ। "धारणाद्धर्ममित्याहुः, धर्मो धारयते प्रजाः' अर्थात् धर्म यह तत्त्व है, जो मानव मात्र द्वारा धारण या स्वीकरण करने योग्य है। इसी कारण वह धर्म कहा जाता है। वह जन-जन को धारण करता है-उसके सहारे प्रत्येक मनुष्य सात्त्विक, शुद्ध जीवन जीने का मार्ग प्राप्त करता है। धर्म के बिना जीवन शून्य है। धर्म सर्वव्यापक एवं शाश्वत सिद्धान्तों पर टिका है। अहिंसा, करुणा, मैत्री, सत्य, शील, शौच, समता तथा सेवा आदि से जीवन को संवारना, सम्मार्जित करना, परिष्कृत करना वह सिखलाता है । वह शान्ति से जीवन जीने का पथ दर्शन देता है। जहां धर्म के नाम पर संघर्ष हुए, रक्तपात हुआ, वह सब उसके वास्तविक स्वरूप को न समझने के कारण हुआ। जैन धर्म आत्मशुद्धि के मार्ग पर अग्रसर होने का एक ऐसी जीवन शैली प्रस्तुत करता है, जिसका अवलम्बन कर मानव अपने जीवन को सार्थक बना सकता है । जैन धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है, वह तो एक ऐसा साधना का मार्ग है, जिसे स्वीकार करने में जाति, वर्ग, वर्ण आदि बाह्य भेद जरा भी बाधक नहीं बनते। धर्म के बहिरंग और अंतरंग के रूप में दो पक्ष हैं । बहिरंग व्रतोपवासादि बाह्य क्रियाओं पर आश्रित है, अन्तरंग आत्मा की चिन्तन, मनन, परिशीलन, अनुविक्षण, प्रेक्षण आदि स्थितियों के साथ जुड़ा है, जिसमें ध्यान का सर्वाधिक महत्त्व है। ध्यान का सम्बन्ध इन्द्रिय नियन्त्रण कर चित को एकाग्रता पूर्वक किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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