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________________ आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श तब आचार्य हेमचन्द्र ने राज-काज में संलग्न राजा द्वारा अध्यात्मयोग के अभ्यास को असम्भव नहीं माना। उन्होंने 'योगशास्त्र' की रचना की । ध्यान आदि के शास्त्रगत, अनुभव गत अनेक रूपों का प्रकटीकरण किया । व्रतमय सदाचारमय जीवन अपनाते हुए ध्यान के मार्ग पर आगे बढ़ने का पथदर्शन दिया । आचार्य हेमचन्द्र यह मानते थे कि यद्यपि एक राजा का या गृहस्थ का जीवन अनेक लौकिक समस्याओं में उलझा रहता है, किन्तु यदि वह अपने सभी कार्यों का आसक्तिशून्य होकर निर्वाह करता जाय तो वे कार्य उसके लिए भार रूप नहीं होते; तभी तो गीताकार ने अनासक्ति भाव से किये जाने वाले कर्त्तव्य कर्मों को करने वाले पुरुष को कर्मयोगी की संज्ञा दी है । " खण्ड : षष्ठ - J~ योगिराज श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को सम्बोधित कर कहा गया, 'तस्माद् योगी भवार्जुन ।' यह आदेश अर्जुन को संन्यासी बनने का उपदेश नहीं था वरन् अनासक्त भाव से, अलिप्त दृष्टि से कर्तव्य कर्म करते हुए आत्मनिष्ठ रहने का संदेश था । Jain Education International साधना का मार्ग निश्चय ही बड़ा कठोर है किन्तु जब साधक का आत्मपराक्रम प्रस्फुटित हो जाता है तो उसके लिए संसार में कुछ भी कठिन नहीं रह जाता। यद्यपि एक मुनि या संन्यासी के लिए, सांसारिक बन्धनों से पृथक् विमुक्त होने के कारण साधना पथ पर आगे बढ़ने की अत्यधिक सुविधा और अनुकूलता रहती है किन्तु आत्मबल का धनी गृहस्थ भी विभिन्न अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में रहता हुआ भी उनसे अप्रभावित रह सकता है । इतना अवश्य है कि वह अध्यात्मयोग की साधना में वैसी उत्कृष्ट स्थिति तक पहुँच पाने में समर्थ नहीं होता जिस प्रकर्षपूर्ण अवस्था में एक मुनि पहुँच सकता है क्योंकि मुनि का आत्म- पराक्रम अधिक उन्नत और विकसित होता है। For Private & Personal Use Only आचार्य हेमचन्द्र साधारण से असाधारण की ओर आगे बढ़ती साधना में विश्वास रखते थे और मानते थे कि एक गृहस्थ जितना गृही जीवन में शक्य है, उस सीमा तक ध्यानयोग की साधना में अग्रसर हो सकता है । इस जीवन के संस्कारों के कारण वह आगे के भव में उच्चतम ध्यानयोग भी सिद्ध कर लेता है। यहाँ हमें आचार्य हरिभद्र द्वारा किये गये भोगियों के भेदों में कुलयोगी के भेद पर गौर करना होगा । 6. श्रीमद् भगवद् गीता www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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