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________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ शैली में समाधान किया है। शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से आत्मा ही सब कुछ है, उसके अतिरिक्त जो भी पदार्थ हैं वे सब पर हैं, विभाव रूप हैं । जब स्वभाव की दृष्टि से साधक ध्यान में प्रवृत्त होता है तब सहज ही ध्याता ध्यान और ध्येय का एकत्व फलित हो जाता है। जब आत्मा प्रवृत्ति - निवृत्ति रूप सांसारिक व्यवहारदशा से हटकर अपने आत्मानुष्ठान में, स्वरूप की प्राप्ति में लीन हो जाता है तब उस आत्मनिष्ठ योगी ध्यानयोग द्वारा परमानन्द की प्राप्ति होती है, वह समाधि अवस्था प्राप्त कर लेता है | 40 वह परमानन्द, आध्यात्मिक आनन्द निरन्तर आने वाले कर्मरूपी ईंधन को नष्ट कर डालता है। वैसे आनन्द को प्राप्त अध्यात्म योगी, बाह्य दु:खों से बेभान रहता है और उनसे उसे जरा भी खेद नहीं होता । समाधितंत्र : आचार्य पूज्यपाद ने साधनाशील, ध्यानानुरत अध्यात्मयोगी का चित्रण करते हुए लिखा है कि समस्त इन्द्रियों का संयमन कर उनको अपने- अपने विषयों से आकृष्ट कर अपने में लीन कर जिस क्षण साधक अन्तरात्मभाव में, तन्मूलक ध्यानावस्था में स्थित होकर जिसका अन्तर्दर्शन करता है वही परमात्मा या परमात्मभाव है । वहाँ साधक का ध्यानमूलक अन्तरानुभूतिपरक चिन्तन आगे बढ़ता है और वह अनुभव करता है कि जो परमात्मा है, वह मैं ही हूँ। जो मैं हूँ वही परमतत्त्व है, वही परमात्मभाव है। मैं ही मेरे द्वारा उपासना करने योग्य हूँ और कोई उपास्य नहीं है । यही वास्तविक स्थिति है । मैं समस्त विषयों से अपने को पृथक् कर अपने द्वारा अपने में ही स्थित हूँ। मैंने परमात्म तत्त्वबोधमय स्थिति को प्राप्त कर लिया है। अतएव मैं ही परमानन्दमय परमशान्तिमय हूँ जो देह से परे सर्वथा पृथक्, पर अविनश्वर आत्मा को इस रूप में नहीं जानता, वह बाह्य दृष्टि से उत्कृष्ट तप करता हुआ भी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता । 4 1 40. वही, 47-48 41. समाधितंत्र 30-33 - Jain Education International 30 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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