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________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ एक ओर चिंतामणि रत्न हो, एक ओर खल या काच का टुकड़ा हो और ध्यान द्वारा जब ये दोनों ही प्राप्त हों तो विवेकी आत्मा किसके प्रति आदर दिखाये ?33 ___ इस श्लोक द्वारा ग्रंथकार ने जो कहना चाहा है उसका आशय यह है कि ध्यान तो एकाग्रता मूलक है। वह एकाग्रता प्रशस्त पर भी हो सकती है और अप्रशस्त पर भी। जहाँ या जिस पर होगी उसका फल भी उसी प्रकार का होगा। इसलिए ध्यान मात्र को ही कैसे आदेय माना जा सकता है। जिस प्रकार वह उत्कृष्टतम वस्तु भी प्राप्त करा सकता है उसी प्रकार निकृष्टतम वस्तु की प्राप्ति का भी हेतु बन सकता है। इस प्रश्न का समाधान वे अग्रिम श्लोक में करते हैं। उन्होंने लिखा है, “ऐहिक सांसारिक फल अनुकूलता इष्ट साधना में अनुरक्त जनों का ध्यान रौद्र एवं आर्त होता है। उसका परित्याग कर धर्म और शुक्ल ध्यान की उपासना करणीय है।34 प्रशस्त या उत्तम ध्यान आत्मपरक है। इस प्रकार ध्यान के विषय में प्रवेश कर उन्होंने आत्मा के स्वरूप का विवेचन किया है जिसका पूरा ध्यान करना वांछित है। लिखा है - आत्मा स्वसंवेदन द्वारा व्यक्त है। वह संसारीअवस्था में देहव्याप्त है। वह अविनश्वर है, द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य है, अत्यन्त सुखमय है और लोक-अलोक का द्रष्टा है।35 ध्यान किस प्रकार किया जाय, इसका निरूपण करते हुए उन्होंने लिखा है कि साधक अपनी इन्द्रियों को विषयों से रोककर चित्त की एकाग्रता से अपने ही द्वारा अपने में स्थित अपने आत्मस्वरूप का ध्यान करे। ग्रंथकार के अनुसार यहाँ आत्मा ही ध्यान और ध्येय रूप है। तीनों यहाँ एक ही साथ समन्वित रूप में उपस्थित किये गये हैं। यह विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिकोण है।37 33. इष्टोपदेश श्लोक 19 34. वही, 20 35. वही, 21 36. वही, 22 37. वही, 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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