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________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ आज्ञा, अपाय, विपाक आदि ध्येय ( 8 ) ध्याता ( 9 ) ध्याता की योग्यता स्वरूप अनुप्रेक्षा ध्यान का व्यवहित होना ( 10 ) अनित्यत्व अशरणत्व आदि का अनुप्रेक्षण ( 11 ) धर्मध्यान की शुभलेश्या, धर्मध्यान के सम्यक् श्रद्धा आदि लिंग | ( 12 ) ध्यान का फल धर्मध्यान के बारह द्वार हैं। द्वार कहने का अभिप्राय है कि जैसे कोई व्यक्ति किसी भवन में प्रविष्ट होना चाहे तो उसे द्वारों में से होकर गुजरना पड़ता है, इसी प्रकार इन बारह द्वारों को अधिगत कर, स्वायत्त कर साधक धर्मध्यान के अभ्यास में लगता हुआ उत्तरोत्तर प्रगतिशील बन सकता है और आगे से आगे विकास करता हुआ यथासमय यथाक्रम शुक्लध्यान तक पहुँच सकता है । 27 आगे उन्होंने ध्यान के साथ भावनाओं का क्या सम्बन्ध है इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि ध्यान से पूर्व भावनाओं का अभ्यास करने से साधक ध्यान की योग्यता उत्पन्न करता है । यों कहने का आशय यह है कि भावनाओं के अभ्यास से मानसिकता में ध्यान के अनुरूप विमल, सात्विक, पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है; क्योंकि भावनाओं का सम्बन्ध विशेषतः ज्ञान- दर्शन - चारित्र एवं वैराग्य के साथ जुड़ा है । ध्यान के लिए वांछित या उपयुक्त स्थान का निर्देश करते हुए कहा है कि संयतिसाधक, ध्यान के लिए ऐसे आसन का चयन करे जो युवती, पशु, नपुंसक तथा दुःश्चरित्र मनुष्य से रहित हो तथा एकांत हो । 28 यद्यपि ध्यान का सम्बन्ध आत्मा से है, ध्यान स्वाश्रित है किन्तु साधना का मार्ग बड़ा कंटकाकीर्ण है। साधक में यत्किंचित् मानवीय दुर्बलताएँ भी होती हैं जो उत्तेजक स्थितियों द्वारा उभर उठती हैं इसलिए मनुष्य के मन में विचलन पैदा करने वाले कारणों का उल्लेख लेखक ने किया है, ज्ञानीजन शास्त्रगत, अनुभूतिगत दोनों ही प्रकार से तत्त्वों का विवेचन करते हैं । अतएव वे अवांछित प्रसंगों या खतरों को टालने के लिए साधक को सावधान करना आवश्यक मानते हैं। जिनका दैहिक संहनन और साधनाभ्यास प्राबल्य पा चुका हो उनके लिए इस प्रकार का कोई खतरा नहीं होता । इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने लिखा 27. वही, गा. 28, 29 28. वही, गा. 35 Jain Education International 24 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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