SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ लिखने में प्राय: उदासीन रहे हैं। 'ध्यानशतक' भी इसी कोटि में आता है। इसके लेखक के विषय में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। ग्रन्थ का नाम भी कुछ विवाद लिये हुए है। इस रचना की पहली गाथा में इसे 'ध्यानाध्ययन' कहा गया है। रचनाकार ने इसका नाम 'झाणज्झयणं' अर्थात् ध्यानाध्ययन लिखा है। 'ध्यानाध्ययन' शब्द यह सूचित करता है कि इस रचना में ध्यान के विषय में विवेचन हुआ है जिसके आधार पर साधक ध्यान का अभ्यास कर आत्मकल्याण कर सके। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस पर संस्कृत टीका लिखी है। सम्भव है, इसकी गाथाओं की संख्या को लक्षित कर जो सौ से कुछेक अधिक हैं इसे 'ध्यानशतक' नाम दे दिया गया हो। भारतीय साहित्य में सौ-सौ पदों की रचनाओं का एक विशेष क्रम वैदिक-जैन आदि विविध परम्पराओं में दृष्टिगोचर होता है। संभव है, उसी कोटि में इस ग्रंथ को परिगणित करते हुए इसका यह नामकरण हो गया हो। ___ इसके रचनाकार के सम्बन्ध में भी अनेक मान्यताएँ हैं। परम्परा से जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण इसके रचयिता माने जाते हैं किन्तु सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. दलसुखभाई मालवणिया आदि ने इस पर विशेष ऊहापोह करते हुए इसको श्रीजिनभद्रगणि द्वारा रचा जाना संदिग्ध माना है। प्रस्तुत कृति में ध्यान के लक्षण, काल एवं स्वामी, ध्यान के भेद, उनका फल इत्यादि का प्रारंभ में निरूपण हुआ है। ग्रंथकार ने ध्यानकाल के समाप्त होने पर छद्मस्थ ध्यानाभ्यासियों में क्या घटित होता है, इस सम्बन्ध में लिखा है।25 ध्यानपुरुष के अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ध्यानान्तर होता है। उसका चिंतन वहाँ पर नहीं रह पाता। आत्मगत-परगत बहुत सी वस्तुओं में संक्रमण-संचार होने पर भी उस ध्यान की प्रक्रिया दीर्घकाल तक गतिशील रह सकती है। यहाँ छद्मस्थ साधकों के अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् जो ध्यानान्तर होने का निर्देश किया गया है, उसका अभिप्राय यह नहीं है कि उसके द्वारा स्वीकृत ध्यान से भिन्न कोई अन्य ध्यान होने लगे। यहाँ ध्यानान्तर से आस्रव भावना एवं अनुप्रेक्षामूलक चित्तस्थिति लेनी चाहिए। यह भी तभी घटित होता है जब अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् भी ध्यान सक्रिय हो। यह क्रम आगे भी गतिशील रह सकता है। आत्मगत-परगत वस्तुओं में संक्रमण का जो उल्लेख किया गया है वहाँ आत्मगत का आश्रय अन्तर्मन आदि तथा परगत का अभिप्राय बहिरंग द्रव्यादि 25. ध्यानशतक गा. 4 ~~~~~~~~~~~~~~~ 22 ~ ~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy