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________________ खण्ड : चतुर्थ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम है। ध्यान पर स्वतंत्र रूप में ग्रन्थों की जो रचनायें हुईं, वे भी 'तत्त्वार्थ सूत्र' में दिये गये विश्लेषण से अनुप्राणित हैं। अतिसंक्षेप में ध्यानविषयक ज्ञातव्य तथ्यों का इन 20 सूत्रों में जो विश्लेषण हुआ है, वह बहुत ही सारगर्भित है। . 'तत्त्वार्थ सूत्र' में ध्यान सम्बन्धी विवेचन में श्वेताम्बर और दिगम्बर पक्षों में जो महत्त्वपूर्ण अन्तर देखा जाता है वह यह है कि जहाँ 'तत्त्वार्थ सूत्र' का 'संभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' पाठ चारों ध्यानों के स्वामियों की चर्चा करते हुए धर्मध्यान का स्वामी अप्रमत्तसंयत को बताता है वहाँ दिगम्बर परम्परा को मान्य ‘सर्वार्थसिद्धि' गत मूल पाठ में धर्मध्यान के प्रकारों की चर्चा ही की गई है, उसके स्वामी का उल्लेख नहीं किया गया। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन का कहना है कि वस्तुत: दोनों परम्पराओं के इस मूल पाठ में अन्तर का कारण यह है कि जहाँ दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम का अनुसरण करते हुए यह माना है कि धर्मध्यान का स्वामी चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक का जीव हो सकता है ; वहाँ 'तत्त्वार्थ का' भाष्यमान पाठ सातवें गुणस्थान से धर्मध्यान की सम्भावना को बताता है। इस प्रकार आचार्यों ने उनके द्वारा मान्य आगम और 'तत्त्वार्थ सूत्र' के मूल पाठ में कोई विरोध न आ जाये इसलिए मूल पाठ से 'अप्रमत्तसंयत' शब्द को हटा दिया। यद्यपि श्वेताम्बर कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में भी धर्मध्यान की सम्भावना चौथे गुणस्थान से मानी गयी है फिर भी श्वेताम्बर आचार्यों ने उस मूल पाठ को यथावत् रहने दिया और मात्र इस सम्बन्ध में आचार्यों के मतभेद का निर्देश है। आचार्य जिनभद्र गणि कृत : ध्यानशतक ध्यान पर प्राकृतभाषा में 'ध्यानशतक' नामक स्वतन्त्र कृति उपलब्ध है। इसमें 105 गाथाओं में ध्यान का विश्लेषण किया गया है। इसका रचनाकाल लगभग छठी शताब्दी स्वीकार किया गया है। ध्यान पर प्राकृत में लिखी गई इस स्वतन्त्र रचना से यह विदित होता है कि साधना के क्षेत्र में ध्यान का महत्त्व क्रमश: बढ़ता गया है। ध्यान आन्तरिक तपों में से एक है तथा उनमें भी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, यदि यह कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। प्राचीन ग्रंथों के ग्रंथकारों के इतिहास के विषय में भारतीय साहित्य में बहुत नैराश्यपूर्ण स्थिति है। यह सूचित किया ही जा चुका है कि भारतीय लेखक अपने सम्बन्ध में ~~~~~~~~~~~~~~~ 21 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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