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रही है कि वे देशकाल गत परिस्थितियों के अनुसार अपनी सहवर्ती परम्पराओं का सहयोग लेकर अपने ध्यान साधना की विधि को विकसित परिमार्जित और परिष्कारित करते रहे है । साध्वी उदितप्रभाजी ने अपने इस शोध प्रबन्ध में उन सब जैन आचार्यों के अवदान को रेखांकित करने का प्रयास किया है ।
साधना की कोई भी परम्परा हो वह न तो शून्य से ही टपकती है और न वह अपनी सहवर्ती परम्पराओं से पूर्णतः अप्रभावित रहती है। जैन ध्यान साधना विधि का काल - क्रम में जो विकास हुआ है, वह अपने सहवर्ती अन्य परम्पराओं से अप्रभावित नहीं रहा है। प्रस्तुत शोध प्रबंध में इन सब तथ्यों का प्रस्तुतीकरण प्रामाणिकता पूर्वक हुआ है । यही कारण है कि प्रस्तुत कृति को हम " जैन ध्यान साधना विधि का इतिहास" भी कह सकते है ।
साध्वी उदितप्रभाजी इस हेतु धन्यवाद की पात्र है । हमारी यही उपेक्षा है कि वे भविष्य में इसी तरह से प्रयत्न और पुरूषार्थ करते हुए भारती के भण्डार को समृद्ध करती रहे !
इस ग्रन्थ के प्रकाशन की इस वेला में मनप्रमुदित है, क्योंकि यह उनके श्रम की सार्थकता का अवसर है। जन-जन इससे लाभान्वित हो यही उपेक्षा है।
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निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म. प्र. )
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