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योग सूत्र की ध्यान साधना पद्धति में बाह्यतः विभेद होते हुए भी जो कुछ एक रूपता प्रतीत होती है उसका मूलभूत कारण यह है कि इन तीनों का मूल एक ही रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि महावीर की और बोद्धों की ध्यान साधना पद्धति उनके पूर्ववर्ती आचार्य रामपुत्र की साधना पद्धति से प्रभावित रही है। क्योंकि हम देखते हैं कि त्रिपिटक साहित्य में बुद्ध ने जिन आचार्यों से ध्यान सीखा था, उनमें एक प्रमुख नाम आचार्य रामपुत्र का भी है। त्रिपिटक साहित्य में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख भी है । जैन परम्परा में भी सूत्रकृतांग में, प्राचीन अंतकृत्दशा की विषयवस्तु में और ऋषिभाषित में रामपुत्र के उल्लेख उपलब्ध है। इस प्रकार जैन और बौद्ध ध्यान पद्धतियों का मूल वस्तुतः रामपुत्र की ध्यान साधना पद्धति रही हुई है, ऐसा माना जा सकता है। यही कारण है कि दोनों में शब्दगत और पद्धतिगत अनेक समरूपताएं प्राप्त होती हैं। महर्षि पंतजलि को भी रामपुत्र का समकालीन ही माना जा सकता है। यही कारण है कि अनेक प्रसंगों में जैन ध्यान पद्धति और पातंजलि योग सूत्र प्रणीत ध्यान पद्धति में भी कुछ अंशों में साम्य नजर आता है। पुनः यह भी सुस्पष्ट है कि कालांतर में जैन ध्यान पद्धति पर हिन्दू परम्परा में विकसित विभिन्न ध्यान पद्धतियों का प्रभाव आया है। आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने योगसूत्र प्रणीत ध्यानपद्धति और योगपद्धति के आधार पर जैन-योग की ध्यान पद्धति का विकास किया। उसके पश्चात् पुनः दसवीं शताब्दी में आचार्य शुभचन्द्र ने तांत्रिक ध्यान साधना विधि का अनुकरण कर के पार्थिवी, वायवी, आग्नेयी, वारूणी आदि धारणाओं की चर्चा की। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में शुभचन्द्र का अनुसरण किया। इस प्रकार जैन ध्यान विधि ऐतिहासिक विकास क्रम में महावीर से लेकर आचार्य हेमचन्द्र तक अन्य ध्यान परम्पराओं का प्रभाव भी देखा जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने भी बौद्ध विपश्यना, पतंजल के योगसूत्र एवं तांत्रिक ध्यान साधना
को समन्वित कर प्रेक्षा ध्यान को पुनर्जीवित किया है। साध्वी उदितप्रभाजी ने . अपने शोध प्रबंध-"जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम" में इसकी चर्चा की है।
वर्तमान युग में मानव समाज की सबसे प्रमुख समस्या उसका तनाव युक्त जीवन और तनाव मुक्ति के साधनों में एक प्रमुख साधन ध्यान भी है। जैन धर्मों में महावीर से लेकर महाप्रज्ञ तक ध्यान की जो धारा प्रवाहित होती रही है उसमें अनेक जैन आचार्यों का अवदान रहा है। प्रस्तुत शोध प्रबंध के विभिन्न अध्यायों में उनके इस अवदान को रेखांकित किया गया है। जैन आचार्यों की यह विशेषता
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