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________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ खण्ड:- चतुर्थ 2 . ... । आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श - आचार्य उमास्वाति कृत तत्त्वार्थ सूत्र : जैन साहित्य में तत्त्वार्थसूत्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। परम्परा से जैन आगम अर्द्धमागधी प्राकृत में रचे गये सूत्र हैं जो साहित्यिक दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन कहे जा सकते हैं। जैनों ने प्राकृत को अपनी धार्मिक भाषा के रूप में स्वीकार किया, क्योंकि यह महावीर के समय में लोकभाषा के रूप में प्रचलित थी। जैन तीर्थंकर तथा तदनुगामी आचार्य, मुनिगण जन-जन के उपकार के लिए ही उपदेश देना उपयोगी मानते थे। __ श्वेताम्बर परम्परा में अर्द्धमागधी प्राकृत का शास्त्र-रचना की दृष्टि से उपयोग हुआ। दिगम्बर आचार्यों, सन्तों और लेखकों ने अर्द्धमागधी के स्थान पर शौरसेनी का उपयोग किया। भारत में वैदिक परम्परा में शास्त्र-रचना की दृष्टि से संस्कृत का सर्वाधिक महत्त्व रहा। वैदिक और लौकिक के भेद से संस्कृत के दो रूप हैं। भेद का तात्पर्य इन दोनों भाषाओं की भिन्नता है। वैदिक संस्कृत में शब्द, धातु आदि के विकल्पों का बाहुल्य है। लौकिक संस्कृत अधिक परिमार्जित और व्याकरणनिष्ठ है। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् आदि वैदिक संस्कृत में रचित हैं। रामायण एवं महाभारत से लेकर उत्तरवर्ती साहित्य लौकिक संस्कृत में है। दर्शनशास्त्रों की रचना लौकिक संस्कृत में ही हुई। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से संस्कृत की अपनी यह विशेषता है कि उसमें अल्पतम शब्दों में विस्तृत भाव व्यक्त किये जा सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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