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खण्ड : तृतीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
और ध्यान में तादात्म्य की यह चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की विशेषता है। दूसरी बात जो आचार्य कुन्दकुन्द के ध्यान सम्बन्धी विवेचन में प्रमुख रूप से उभर कर सामने आती है वह यह कि वे ध्यान का साध्य निर्विकल्प दशा को मानते हैं और इसलिए धर्मध्यान की अपेक्षा शुक्लध्यान उनकी विवेचना का मुख्य विषय रहा है।
'मूलाचार' में ध्यान सम्बन्धी विवेचना अर्द्धमागधी आगम साहित्य के समान ही हुई है। मूलाचार और अर्द्धमागधी आगम साहित्य के ध्यान सम्बन्धी विवेचन में समरूपता है किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ध्यान के सम्बन्ध में एक अलग ही दृष्टि प्रस्तुत करते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भावनाओं को ही या अनुप्रेक्षाओं को ही ध्यातव्य माना गया है। इस प्रकार शौरसेनी आगमतुल्य साहित्य में जहाँ एक ओर अर्द्धमागधी साहित्य के विवेचन से समरूपता प्रतीत होती है, वहीं कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों में ध्यान के सम्बन्ध में परम्परागत दृष्टि से ऊपर उठकर आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन किया गया है।
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