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खण्ड : तृतीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
के धर्म और चार प्रकार के शुक्लध्यान का ही चिन्तन किया करता है। वह परिषहों से सन्तप्त होकर भी कभी आर्त और रौद्र इन दुर्व्यानों का चिन्तन नहीं करता।26 .
सुगति अर्थात् उत्तम गति में इनको प्रतिबन्धक जानकर इनसे दूर रहता हुआ, सम्यक् बुद्धि - सम्पन्न क्षपक धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याता है।27
ध्यान की सामग्री :
भगवती टीका में नाक के अग्र भाग पर दृष्टि को स्थिर करके एकविषयक परोक्ष ज्ञान में चैतन्य को रोककर शुद्ध चिद्रूप अपनी आत्मा में स्मृति का अनुसंधान करे, ध्यान की ऐसी सामग्री बतलायी है। यह ध्यान संसार से छूटने के लिए किया जाता है।28
विषयों से इन्द्रियों को और मन को हटाकर वीर्यान्तराय से उत्पन्न हुए वीर्य परिणाम को स्थापित करके आत्मा में मन को लगाता है अर्थात् वीर्य परिणाम से अपनी शुद्ध आत्मा में मन को धारण करता है। फिर एक विषय में मन को रोककर आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार प्रकार के धर्मध्यान को ध्याता है।29 तदनन्तर आज्ञाविचयादि चारों भेदों के पृथक् - पृथक् लक्षण, धर्मध्यान के आलम्बन आदि का वर्णन किया गया है।30
धर्मध्यान के चतुर्थ भेद संस्थानविचय में सम्बद्ध बारह अनुप्रेक्षाओं का भी नाम निर्देश कर उनमें किस प्रकार क्या चिन्तन करना चाहिए, इसकी विस्तार से प्ररूपणा की गई है।31
आगे यह कहा गया है कि उक्त बारह अनुप्रेक्षाएँ धर्मध्यान की आलम्बनभूत हैं। ध्यान के आलम्बनों के आश्रय से मुनि उस ध्यान से च्युत नहीं होता। वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा ये उक्त धर्मध्यान के आलम्बन हैं। लोक धर्मध्यान
26. वही गा. 1669-70 27. वही गा. 1699 28. वही गा. 1701 29. वही गा. 1702-03 30. वही, गा. 1705-09 31. वही, गा. 1710-73 ~~~~~~~~~~~~~~~
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