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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
भगवती आराधना :
आचार्य शिवार्यकृत 'भगवती आराधना' में मुनियों की अनेक साधनाओं और वृत्तियों का विस्तृत वर्णन हुआ है। इसका रचनाकाल सम्भवत: पाँचवीं शताब्दी होना चाहिए। इसमें सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आदि चार आराधनाओं की प्ररूपणा की गई है। इसमें लगभग 271 गाथाओं में चारों प्रकार के ध्यान का निरूपण हुआ है। कहा गया है कि रत्नत्रय का आराधक ही सम्यक् ध्यान कर सकता है। इसमें तप के अन्तर्गत ही आगम कथित ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया गया है।
इस ग्रन्थ पर अपराजितसूरि ( अनुमानत: विक्रम की 9 वीं शताब्दी के पूर्व ) के द्वारा 'विजयोदया' नामक टीका और पं. आशाधर (वि. 13 वीं शताब्दी) द्वारा 'मूलाराधना दर्पण' नामक टीका रची गई है। इसके अतिरिक्त आचार्य अमितगति (वि. 11 वीं शताब्दी) द्वारा संस्कृत में पद्यानुवाद भी किया गया है। आर्य जिननन्दिगणी, सर्वगुप्तगणी और आर्य मित्रनन्दी उनके विद्या एवं शिक्षा गुरु 24122
खण्ड :
'भगवती आराधना' की विजयोदया टीका में राग-द्वेष और मिथ्यात्व के संपर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है उसे ध्यान कहा गया है । आगे एकाग्रचिन्तानिरोध को भी ध्यान कहा गया है। 23
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तृतीय
ध्यान के चार भेद आर्त्त, रौद्र, धर्म और
शुक्ल हैं ।
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आर्त्तध्यान के चार भेद हैं- अनिष्टसंयोगज, इष्टवियोगज, परिषह ( वेदना) जन्य और निदान ये संक्षेप में कषाय सहित आर्त्त ध्यान के भेद हैं। 24 1. चोरी, 2 झूठ और 3. हिंसा का रक्षण तथा 4. विषय संरक्षण के लिए सतत चिन्तन । कषाय सहित रौद्रध्यान के ये चार भेद हैं । ' ग्रन्थ में भक्तप्रत्याख्यान के भेदभूत सवीचार भक्त प्रत्याख्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि जो संसार परिभ्रमण के दुःखों से डरता है वह आर्त्त और रौद्र ध्यान का त्याग कर संक्लेश के विनाशक चार प्रकार 22. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ. 485
23. भगवती आराधना विजयोदया टीका. 21 व 70 गा. 1693
24. वही गा. 1697
25. वही गा. 1998
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