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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आवश्यक नियुक्ति में ध्यान :
आवश्यक नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) को जैन परम्परा में बहुत सम्मान और बहमान प्राप्त है। इनका समय विक्रम की पाँचवीं-छठी शती है। आवश्यकनियुक्ति के कायोत्सर्ग नामक प्रकरण के आधार पर इन्हें एक सिद्धयोगी की प्रतिष्ठा दी जा सकती है। इस प्रकरण में कायोत्सर्ग का विशद विवेचन किया गया है। कायोत्सर्ग जैन साधना का एक अभिन्न अंग है, जिसके बिना ध्यान सिद्ध नहीं होता।
कायोत्सर्ग को अनुयोगद्वार में व्रण-चिकित्सा कहा गया है। सतत सावधान रहने पर भी प्रमाद आदि के कारण साधक की साधना में दोष लग जाते हैं, भूलें हो जाती हैं। इन भूलों रूपी जख्मों को ठीक करने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है, जो अविचार रूपी घावों को ठीक कर देता है।
संयमी जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, अपने आपको विशुद्ध बनाने के लिए, आत्मा को माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य से मुक्त करने के लिए पापकर्मों के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है।58 कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की एक पवित्र साधना है।
षड़ावश्यक में कायोत्सर्ग को स्वतंत्र स्थान प्राप्त है, जो इस भावना को अभिव्यक्त करता है कि प्रत्येक साधक को प्रात: और संध्या के समय शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान करना चाहिए। भिक्षु के लिए दिन में अनेक बार कायोत्सर्ग करने का विधान है।9 कायोत्सर्ग करने के अनेक प्रयोजन हैं - प्रवृत्ति- निवृत्ति का सन्तुलन,60 भयनिवारण,61 स्व-दोष दर्शन,62 कर्मक्षय,63 कषाय-विजय,64 अनिष्टनिवारण65 आदि। 58. वही, तस्स उत्तरी का पाठ. 59. (क) दशवैकालिक सूत्र 10-13 (ख) दशवैकालिक चुलिका 2.7 60. आवश्यक नियुक्ति गा. 1466 61. वही, गा. 1468 62. वही, गा. 1511 63. वही, गा. 1568 64. वही. 1471 65. वही, 1551 ~~~~~~~~~~~~~~~- 39 ~~~~~~~~~~~~~~~
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