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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान साक्षात्कार होता है। 52 दशवैकालिक सूत्र के चतुर्थ षड्जीवनिकाय अध्ययन के अन्त में बताया है कि - लोकालोक को जानने के बाद में केवलज्ञानी जिन मन, वचन, काया इन तीनों योगों का निरोध करें। 53 मन, वचन और काया द्वारा आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है, उसे योग कहते हैं। यह योग जब शुभ कार्य में प्रवृत्त होता है, तब वह शुभ कर्मों का आस्रव करता है और जब वह अशुभ कार्य में प्रवृत्त होता है, तब वह अशुभ कर्मों का आस्रव करता है । सूत्रकार कहते हैं कि केवली जिन जीवन के अन्तिम क्षणों में योग प्रवृत्ति नहीं करते, वे योगों का निरोध करते हैं - अर्थात् चार अघातिया - वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र रूप जो कर्म अवशेष हैं, उन्हें भी नष्ट कर देते हैं। अनेक भवों से संचित जो कर्मांश हैं, उनका क्षय करने के लिए योग का निरोध करते हैं । खण्ड : द्वितीय टीकाकार कहते हैं कि संसार - परिभ्रमण से उकताये हु और अनन्तकालीन स्थायीरूप अपनी आत्मिक संपत्ति को चाहने वालों को धर्म और शुक्लध्यान तथा व्युत्सर्ग तप आदि द्वारा अपने शुभाशुभ कर्मों के क्षय करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । योगनिरोधजन्य स्थिरता प्राप्त हो जाने पर केवली जिन को किस फल की प्राप्ति होती है ? इस शंका का समाधान देते हुए आगे सूत्रकार कहते हैं कि योगों का निरोध करने पर केवली जिन के पूर्वसंचित कर्म नष्ट हो सकते हैं और तभी उन्हें सिद्धि अर्थात् सिद्ध गति की प्राप्ति हो सकती है। 52. दशवैकालिक सूत्र 8.63 53. वही, हिन्दी भाषा टीका सहितम् 4.23, 24 J टीकाकार कहते हैं कि इससे तो यही सिद्ध होता है कि अजीवसंबंधजन्य ईर्यापथिक और साम्परायिक क्रिया से सर्वथा रहित होने पर ही जीव को सिद्धगति प्राप्त होती है। क्योंकि जीव को क्रिया कराने वाली दो ही चीजें हैं एक मन वचन - काय रूप योग और दूसरी क्रोध-मान- माया - लोभरूप कषाय । केवली जिन ने जब इन दोनों कारणों का अभाव कर दिया तो क्रिया कैसे हो सकती है ? कारण नष्ट हो जाने पर कार्य की उत्पत्ति किसी भी तरह सिद्ध नहीं होती, यह बात सर्वसम्मत Jain Education International 36 For Private & Personal Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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