SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान खण्ड : द्वितीय मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत ही समीचीन और उपयुक्त है क्योंकि स्वाध्याय द्वारा जब अन्तरात्मा में निर्मल भाव समुदित हो जाते हैं, तब दृष्टि को, मन को एकाग्र होने की पृष्ठभूमि प्राप्त हो जाती है। दूसरे शब्दों में, ध्यान के अनुरूप मानसिक भूमिका बन जाती है। अतएव द्वितीय प्रहर में ध्यान करने का उपदेश दिया गया है। जिस प्रकार स्वाध्याय प्रत्येक दिवस और प्रत्येक रात्रि का एक अपरिहार्य कार्य है, उसी प्रकार ध्यान भी अनिवार्यरूपेण करणीय है। स्वाध्याय और ध्यान को आत्मा की खुराक कहा जा सकता है। जिस प्रकार देह-निर्वाह हेतु भिक्षाचर्या द्वारा प्राप्त आहार और व्यवहारजनित ऊर्जा-क्षय की परिपूर्ति हेतु निद्रा आवश्यक है, उसी प्रकार जीवन में ध्यान भी परम आवश्यक है। उससे आन्तरिक ऊर्जा में नवीन शक्ति का संचार होता है, आध्यात्मिक आह्लाद का अनुभव होता है, संयम के पथ पर सफलतापूर्वक चलते रहने की शक्ति प्राप्त होती है और जीवन में दिव्यता की प्रतीति होती है। । प्रस्तुत सूत्र का 29 वाँ अध्ययन सम्यक् पराक्रम है। उसमें सम्यक्त्वमूलक आत्म-पराक्रम का किन-किन कारणों से किस-किस रूप में अभ्युदय होता है, उसका बड़ा ही सुन्दर विवेचन हुआ है। एक प्रसंग में भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतम ने भगवान से जिज्ञासा की कि प्रभुवर! मन के एकाग्रसन्निवेश से अर्थात् मन की एकाग्रता से जीव क्या फल प्राप्त करता है ? भगवान ने उत्तर दिया कि मन के एकाग्र सन्निवेश से चित्तवृत्ति का निरोध होता है, चित्तवृत्ति स्थिर बनती है।49 उत्तराध्ययन सूत्र के 30 वें अध्ययन में “तवमग्गगई" तपोमार्गगति के रूप में कर्मक्षय मूल तपश्चरण का विवेचन हुआ है। बाह्यतप और आभ्यन्तरतप के रूप में उसके दो भेद किये हैं। आभ्यन्तर तप के अन्तर्गत वहाँ ध्यान एवं कायोत्सर्ग की भी चर्चा आयी है कहा गया है कि - अट्ठ रूद्धाणि वज्जिता, झाएज्जा सुसमाहिए। धम्मसुक्काइं झाणाई, झाणं तं तु बुहावए॥ आर्त एवं रौद्र ध्यान का परित्याग कर आत्मजागरूक साधक धर्म और शुक्ल ध्यान की आराधना करता है, यह उसका ध्यान रूप आन्तरिक तप है। 49. वही, 29.26 पृ. 501 50. वही 30.35 ~~~~~~~~~~~~~~ 34 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy