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________________ ३२ जैसे वर्तमान में कई राजा अपने पास ऐसे ऐसे मल्ल रखते हैं कि बाहरके कोई भी मल्ल इनकी पराजय नहीं कर सकते थे अर्थात् राजालोग मल्लोंकी एक सभासी संस्था जमाकर रखते हैं, ठीक उसी प्रकार पुराने जमानेमें बड़े बड़े राजाओंके पास बड़े बड़े पंडित रहते थे, उनकी खास करके अपराजित ऐसी एक पंडितसभा होती थी । इसमें ऐसे ऐसे पंडित रहते थे, जिनकी पराजय बाहरके कोई भी पंडित नहीं कर सकते थे । एक समय भोज की राजसभामें बाहरका दिविजयी एक धर्म नामका कौल तंत्र मत का महाकवि पंडित आया और उसने भोजकी सभामें आकर कहा कि " आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहम् दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिपरिखामेखलाया मिलायाम् आज्ञासिद्धः किमिह बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् " ॥ २६३ ॥ - ( प्रभावकचरित्र पृ० २४१ ) अर्थात् “ मैं आचार्य हूं, कवि हूं, वादिराज हूं, बड़ा पंडित हूं, ज्योतिषी हूं, वैद्य हूं, मांत्रिक हूं और तांत्रिक भी मैं हूं । हे राजन् ! इस समुद्र वेष्टित सारे भूमंडलमें मैं आज्ञासिद्ध हूं अर्थात् मैं चाहूँ सो कर सकता हूं, अधिक क्या कहना ? मैं सिद्धसारस्वत हूं अर्थात् सरस्वती मेरे वश में है । "" इस पंडितकी ऐसी घटाटोपमय वाणी सुनकर राजा भोजकी सभाके सब पंडित घबड़ा गये और राजा भोजकी राजकीय पंडित सभा निष्प्रतिभ सी बन गई। आए हुए पंडितको बिना जीते भोजकी पंडितसभाकी प्रतिष्ठा नहीं रह सकती। तब भोजने धनपालको बुलानेका विचार किया । परंतु भोजको याद आया कि जिस कविका मैंने भयंकर अपमान किया है वह मेरी सभामें फिर कैसे आ सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001708
Book TitlePaia Lacchinammala
Original Sutra AuthorDhanpal Mahakavi
AuthorBechardas Doshi
PublisherR C H Barad & Co Mumbai
Publication Year1960
Total Pages204
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Dictionary
File Size9 MB
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