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________________ “ निम्मलणहे वि अणहे जिणाण चलणुप्पले पणमिऊण । वीरमविरुद्धवयणं थुणामि स-विरु द्धवयणमहं" ॥ १॥ तथा अंतभागका पद्य इस प्रकार है :-- -. "इय सयलसिरिनिबंधण पालय पञ्चल तिलोअलोअस्स ।। भव मज्झ सया मज्झत्थगोयरे संथुइगिराणं" ॥ ३० ॥ इस अंतिम पद्यमें 'धण पालय' शब्द द्वारा कविने अपना नाम भी सूचित किया है। ___ इन तीस पद्योंकी सारी स्तुति संपूर्णरूपमें जैनसाहित्यसंशोधकके तीसरे खंड के तीसरे अंकमें छपी हुई है। वहां उसका संपादन और सारा स्पष्टीकरण इसी लेखकने किया है। . ७. प्रबंधकारने लिखा है कि कवि धनपालने अपने धनका सात क्षेत्रोंके उद्धारार्थ उपयोग किया। श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी, जिनचैत्य, जिनबिंब और शास्त्र, ये सात क्षेत्र जैनपरंपरामें प्रसिद्ध हैं। कविने एक बड़ा प्रासाद-जैनप्रासाद बनवाया और उसमें अपने आचार्य महेन्द्रसूरि द्वारा श्रीऋषभदेव भगवानकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करवाई. श्रीऋषभदेव भगवानकी स्तुति करते हुए कविने श्रीरिषभपञ्चाशिका नामकी पचीस पद्योंमें एक प्राकृत भाषामय स्तुति बनाई। उसका आरंभ इस प्रकार है: “ जय जंतुकप्पपायव" इत्यादि । यह स्तुति निर्णयसागर प्रेससे छप चुकी है। ८ कविने अपनी मातृभाषामें 'सत्यपुरीय श्री महावीर उत्साह' नामकी पेंतीस पद्यमय एक और भी स्तुति बनाई है । यह स्तुति जैनसाहित्यसंशोधकके उक्त अंकमें संपादक महाशयने सविवेचन मूलपाठके साथ प्रकाशित की है। इस स्तुतिसे मालूम होता है कि कवि कोरंटक, श्रीमालदेश, धार, आहाड(आघाट ? आग्रा ? ) नराणा, अणहिलवाड़ पाटण, विजयकोट और पालीताणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001708
Book TitlePaia Lacchinammala
Original Sutra AuthorDhanpal Mahakavi
AuthorBechardas Doshi
PublisherR C H Barad & Co Mumbai
Publication Year1960
Total Pages204
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Dictionary
File Size9 MB
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