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पितासे चिंताका कारण पूछा । तब कविने ‘राजाने कथाकी सारी पोथी जला दी' इत्यादि घटी घटना सुनाई । तब पुत्रीने झट कहा कि आप चिंता न करें, मैंने वह कथा जितनी सुनी है उतनी सारी कथा मुझे बराबर अक्षरशः याद है । आप अब चिंताको छोड़ दें और झटपट उठकर स्नानादि कार्य कर लें और मेरे मुखसे उस सारी कथा को सुनकर फिर लिख लें। _अपनी पुत्रीकी बात सुनकर कवि बड़ा ही प्रसन्न हुआ और फिरसे वह कथा पुत्रीने जितनी सुनी थी सारी लिखवा दी।
प्रबंधकार कहता है कि मूल कथा बारह हजार श्लोक प्रमाण थी, उसमें से नौ हजार प्रमाण बराबर लिखी गई और शेष तीन हजार प्रमाण कथा पुत्रीने नहीं सुनी थी उतनी नयी रच डाली. इस प्रकार कथा का नया अवतार हो गया और ऐसा भी कहा जाता है कि पुत्रीके नामसे कथाका नाम तिलकमंजरी रखा गया।
उक्त इन दोनों वृत्तांतोंसे कविमें सत्यप्रियताके कठोर व्रत की तथा निःस्पृह वृत्तिकी भी स्पष्ट झलक मालूम होती है। और उसकी नौ वर्षकी पुत्रीका शिक्षण भी कितना उत्तम कोटिका था यह भी स्पष्ट दीखता है।
धन्य है धनपालके कुल और कुटुंबको ।
६. कविके प्रबंधसे मालूम होता है कि जब राजाने कविका अनादर किया तब वह धारासे पश्चिमकी ओर सत्यपुर (साचोर जि० जोधपुर ) में चला गया। वहां भगवंत महावीरस्वामीका पुराना एक बड़ा चैत्य-मंदिरथा । कविने वहां रह कर भगवंत महावीरकी आराधनामें मन लगा दिया और सत्यपुरीय महावीर स्वामीकी एक बड़ी उत्तम काव्यमय विरोधाभासअलंकारसंयुक्त स्तुति प्राकृतभाषामें रच डाली। प्रबंधकार कहता है कि उस स्तुतिका आरंभ इस प्रकार है:- 'देव निम्मल' इत्यादि। .. __वर्तमानमें जो यह स्तुति प्रकाशित की गई है उसमें आदिभाग इस प्रकार है:
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