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________________ २५ वचसा तथा कर्मणा किसी प्रकार के दुःसंकल्प, दुर्वचन और दुर्व्यापार को नहीं करूंगा. ऐसा निश्चय करके श्रावक व मुनि एक आसनमें स्थिर होकर जीवनांत तक धर्मध्यानमें बैठे रहते हैं वा अशक्त हो तो दर्भके बिछौने पर सो रहते हैं और अपनी क्रोध मान माया लोभ वगैरह दुर्वृत्तियोंको श्रीण, क्षीणतर, क्षीणतम करनेके लिए देहद्वारा कठोर तप भी करते रहते हैं. इसका नाम मरणांतसंलेखना विधि है. ] इस प्रबंध से नीचेकी बातें फलित होती है. १. धनपाल जन्मसे ब्राह्मण था और जैनधर्मके प्रति नफरत करता था. वह सरलस्वभावी था तथा सदाचरण का जिज्ञासु रहा अतः दहींमें जीव होनेकी बात सुनते ही उसकी अहिंसाविषयक जिज्ञासा तेज हुई और वह जैन श्रावक बन गया. गुप्तकाल अहिनकुलम की तरह श्रमण-ब्राह्मणम् इस प्रकारकी कहावत चली आई है, फिर भी जैनपरंपरामें प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम से लेकर जो बडे बडे दिग्गज महावादी और आध्यात्मिकवृत्तिप्रधान आचार्य हुए हैं वे प्रायः जन्मजात ब्राह्मण हुए हैं. ऐसा अनुमान करना अनुचित न होगा कि प्राचीन ब्राह्मण कुलके संस्कारों में सरलता और सत्यान्वेषण वृत्ति उनमें विद्याप्रियता होने से अधिक सुलभ होगी । २. प्रबंधमें शोभनकी दीक्षा का जो प्रसंग आया है उससे मालूम होता है कि उस काल के जैनमुनि किसी भी बहाने से शिष्यप्रिय होते थे. संयमके लिए सच्चे वैराग्यके प्रति उपेक्षा हो गई थी. मंत्रतंत्र के प्रयोग करना आदर्श संयमीके लिए सर्वथा निषिद्ध होनेपर भी किसी भी प्रकार के बहानेको धार्मिकताका रूप देने में संकोच कम हो गया था. वर्तमान में भी इसी बातावरणकी प्रतिध्वनि जैनमुनियोंमें क्या नहीं दीख पडती है ? वर्तमान हमेशा भूतकालका प्रतिध्वनिरूप होता ही है. Y Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001708
Book TitlePaia Lacchinammala
Original Sutra AuthorDhanpal Mahakavi
AuthorBechardas Doshi
PublisherR C H Barad & Co Mumbai
Publication Year1960
Total Pages204
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Dictionary
File Size9 MB
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