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दिनके दहींमें जो जीव उत्पन्न होते हैं वे भी श्वेतसे प्रायः होते हैं. अतएव दहीं का रंग विना बदले वे दीख नहीं सकते. तो आप इस दहींमें थोडास अलता डाल दीजिए, जिससे इसका रंग थोडा बदल जायगा, तब आप देखेंगे तो इसमें चलते हुए कीडे नजर में आवेंगे.
फिर मैंने ( धनपालने) अलता मंगाकर दहीं में डलवाया तो जो बात मुनियोंने कही वह बराबर सही मालूम पडी: दहींमें चलते हुए कीडे को मैं प्रत्यक्ष देख सका.
तब मेरे ( धनपालके ) मनमें मुनियों की दयावृत्ति का और उनके अहिंसाप्रधान धर्मका सच्चा ख्याल आया तथा जिस धर्मका आचरण मैं अभी कर रहा हूं इस हिंसाप्रधान यज्ञ यागादिक कर्मकांडमय वैदिक धर्मका भी बराबर ख्याल आया. दोनों धर्मोकी जब मैंने बुद्धिपूर्वक तुलना की, विश्लेषणा की, तब मुझको आपके इस अहिंसाप्रधान धर्मपर प्रीति हुई, विश्वास हुआ और धर्मविषयक मेरी परंपरागत गलती समझमें आ गई. अतः हे मुनिराज ! मैं धर्मके विषयमें आपकी शरण चाहता हूं और आज से मैं जैनधर्मका स्वीकार करता हूं.
इस प्रकार गदगद बोलते हुए धनपालने शोभनमुनि द्वारा जैनधर्मको स्वीकार किया और तबसे वह यावज्जीवन जैनधर्मपरायण बन गया.
उसने श्रावक धर्मका स्वीकार किया और अंतकालमें जैन धर्ममें जिस प्रकार संलेखना विधि बताई है इस प्रकार संलेखना विधिसे मरण पाकर धनपाल सद्गतिका भागी हुआ.
[जब मरण समय नज़दीक मालूम होता है तब व्रतधारी श्रावक वा मुनि अपने गुरुकी शरण लेकर तीर्थंकर भगवंत को नमस्कार करके अपनी सब बाह्य प्रवृत्तियों को छोड़ देते हैं और अपने घरके कोई कर वा उपाश्रयमें जा कर ऐसा नियम लेते हैं कि अब मैं मरण तक सिर्फ अ पध्यानमें स्थिर रहूंगा, खानपानका सर्वथा त्याग कर दूंगा और मनसा
एकांत स्थानमें जा
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