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मंडलरूप बना हुआ था.
श्रीप्रभाचंद्रसूरि द्वारा विक्रमसंवत् १३३४ में लिखे गए प्रभावकचरित्र में श्री महेंद्रसूरिजीका सविस्तार प्रबंध दिया गया है. उस प्रबंध में महाकवि धनपाल के जीवनका वृत्तांत जिस प्रकार दिया गया है उसका सार इस प्रकार है :
मध्यदेश में संकाश्य नाम के स्थान में (गांवमें ) रहनेवाला देवर्षि नामका एक ब्राह्मण था, वह किसी प्रकार के व्यावहारिक कारणसे मालवदेशकी राजधानी धारा नगरीमें आकर रहता था. उसके पुत्रका नाम सर्वदेव था. सर्वदेवके दो पुत्र थे; एक धनपाल और दूसरा शोभन.
एक समय चंद्रगच्छ के आचार्य श्रीमहेन्द्रसूरि ग्रामानुग्राम विहार करते करते सर्वदेव के स्थान में अर्थात् धारानगरी में आए. सर्वदेव ब्राह्मणने श्री महेन्द्रसूरिकी प्रतिष्ठा तथा व्याख्यान शक्तिका प्रभाव सुना. वह ब्राह्मण आचार्य के समागम के लिए उपाश्रयमें गया. और तीन दिन तथा तीन रात्रि तक उपाश्रयमें ही समाधिमग्न होकर रहा. तब आचार्यने उससे पूछा कि क्या आप हमारा परीक्षण करने आए हैं वा और किसी कार्यसे आए हैं ?
सर्वदेवने कहा - महात्माओं के दर्शनसे सुकृतकी प्राप्ति होती है तथा मेरा निजका कार्य भी है इस लिए मैं आपके दर्शनके लिए आया हूं.
यह
सर्वदेवने अपने कार्यका वृत्तांत कहते हुए आचार्य को कहा कि मेरा कार्य गुप्त है. मेरे पिता राज्यमान्य थे और लाखों की दक्षिणा पाते थे. अतः मेरे घरमें किसी भी जगह उस धनकी निधि गडी हुई होनी चाहिए, मुझे उसका पता नहीं लगता, अतः आप कृपा कर के उस को बतलाइए.
आप परोपकारी हैं अतः इतना मेरा कार्य कर दें. आप धननिधिको बताएंगे तो इस दरिद्र ब्राह्मण के सारे कुटुंब को बडा आनंद होगा तथा हमारा दारिद्र्य भी दूर हो जायगा.
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