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________________ २६ रसिओ जहा ( रसिको यथा) दूई - विअड्ड- वअणाणुवंधाइअरं विअंभिउं थद्धा । पडइ सउण्णस्स उअ रसंत रसणा कुरंगच्छी ।। ६५ ।। दूतीविदग्धवचनानुबद्धा इतरं विजृम्भयितुं स्तब्धा । पतति सपुण्यस्य उरसि रसिदशना कुरङ्गाक्षी ।। ६५ ।। दूती के चतुर वचनों का अनुसरण करने वाली इतरजनों (के नेत्रों) को (आश्चर्य से) विकसित करने के लिये गर्वीली बनी हुई तथा शब्द करती हुई करधनी वाली मृगाक्षी किसी पुण्यशाली के वक्ष:स्थल पर गिरती है । यह नायिकारब्ध शृङ्गार प्रसंग है, नायिकानिष्ठ रतिभाव की आस्वाद्यमानता के कारण शृङ्गार रस है, शृङ्गार की स्फुट प्रतीति के कारण 'रसिक' अलंकार है, यही भामह तथा दण्डी का रसवद् अलंकार है । आचार्य दण्डी ने रसपेशल कथन को ही रसवद् अलंकार माना है - प्रेयः प्रियतराख्यानं रसवद् रसपेशलम् । तेजस्वि रूढालङ्कारं युक्तोत्कर्षं च तत् त्रयम् ।। काव्यादर्श यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य है कि ध्वनिसिद्धान्त के प्रवर्तन के अनन्तर रसवत्, प्रेयस्, ऊर्जस्वि और समाहित- इन अलंकारों के स्वरूप के सम्बन्ध में मान्यता बदल गई थी। प्राचीन आलंकारिक रस और रसवत् में अन्तर नहीं करते थे। वे रसयुक्त कथन को ही रसवत् अलंकार मानते थे। किन्तु आचार्य आनन्दवर्धन उक्त चारों अलंकारों को गुणीभूत व्यङ्ग्य काव्य के अन्तर्गत मानते हैं। उनके अनुसार जहाँ पर रस, भाव, भावाभास, रसाभास, भावशान्ति प्रधान न होकर अङ्गरूप होते हैं वहाँ पर इन्हें क्रमश: रसवत्, प्रेयस्, ऊर्जस्वि और समाहित अलंकार कहते हैं। प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राङ्गं अलंकारदप्पण तु रसादयः । काव्ये तस्मिन्नलंकारो रसादिरिति मे मतिः । । ध्वन्यालोक पज्जाओ भाइ जहा (पर्यायो भण्यते यथा) गरुआण चोरिआए रमंति (ए) पअडे रइरसं कत्तो । माकुणसु तस्स दोसं सुन्दरि ! विसमट्ठिए कज्जे ।। ६६ ।। गुरुकानां गौर्या: १ रमते प्रकटे रतिरसं कर्ता । मा कुरु तस्य दोषं सुन्दरि विषमस्थिते कार्ये ।। ६६ ।। रतिक्रीडा का इच्छुक नायक नायिका को प्रकारान्तर से कह रहा है - हे सुन्दरि (जो ) रतिकर्म का कर्ता रसिक प्रकट में ही गुरुजनों की गौरी से रतिक्रीड़ा गौरी-गौरी तु नग्निका नागतार्तवा' इत्यमरः । १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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