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________________ अलंकारदप्पण जाई जहा (जातिर्यथा) सिर-धरिअ-कलस-तोलि अ-वाहा जुअलाइ गाम-तरुणीए । मण्णइ विलासदिट्ठो भइट्टि (ओ) पामरो पुहविं ।। ६२।। शिरोधृतकलशतुलिता बाहायुगलेन ग्रामतरुण्या । मन्यते विलासदृष्टो भृतिस्थितां पामरः पृथ्वीम् ।।६२।। अपनी दोनों भुजाओं से (पकड़कर) सिर पर रक्खे कलश को ऊपर उठाए हुए ग्रामतरुणी द्वारा विलासपूर्ण दृष्टि से देखा गया अज्ञानी (सम्पूर्ण) पृथ्वी को चाकरी करने में लगी हुई समझता है अर्थात् ग्रामतरुणी की चाकरी को देखकर इतना तल्लीन हो गया है कि उसके लिये मानो पूरी पृथ्वी ही वैसा कर रही हो । बइरागो (वइरेओ) जहा- व्यतिरेको यथा दूसह-पआ(भा) व-पसरो सोमो स (ज) इ अखलिअ-पहो तासिं । तिव्व जडा उण दोण्हा वि रवि रअ (ह) रअ हअच्छाआ ।। ६३।। यहाँ पर छाया और अर्थ अस्पष्ट हैं । फिर भी अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है। आपका चातुर्य अथवा तेज असह्य है। आप सदैव भद्र रहे हैं और बिना किसी कठिनाई के मार्ग पार किया है। सूर्य तो अचेतन (?) है। फलतः उसकी किरणें आपके सामने हतप्रभ हो जाती है। ॥६३।। 'रसिक' एवं 'पर्याय' अलंकारों का लक्षण फुड-सिंगाराइ-रसो रसिओ अह भण्णए अलंकारो । अण्ण-ववओस- भणिए विणिम्मिओ होइ पज्जाओ ।।६४।। स्फुटशृङ्गारादिरसः रसिकोऽथ भण्यतेऽलंकारः । अन्यव्यपदेश भणिते विनिर्मितो भवति पर्यायः ।।६४।। शृङ्गार आदि रसों की स्फुट प्रतीति होने पर 'रसिक' अलंकार होता है तथा अन्य के व्याज से कहे जाने पर निबद्ध उक्ति में 'पर्याय' अलंकार होता है। यहाँ पर ग्रन्थकार द्वारा कथित 'रसिक' अलंकार आचार्य भामह का रसवद् अलंकार ही है । उन्होंने (भामह) इसका लक्षण इस प्रकार किया है - "रसवदर्शितस्पष्टशृङ्गारादि रसं यथा ।।काव्यालंकार ३/६।। 'पर्याय' अलंकार का लक्षण अन्य आलंकारिकों के पर्याय से नहीं अपितु 'पर्यायोक्त' अलंकार से ही साम्य रखता है। संभवत: ग्रन्थकार ने पर्यायोक्त' को ही 'पर्याय' नाम दिया है। भामह का पर्यायोक्त का लक्षण है पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते । काव्यालंकार २।८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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