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________________ जैन साहित्य चन्द्रिका नामक वचनिका पं० टोडरमल जी ने सं० १८१८ में समाप्त की । गोम्मटसार से सम्बद्ध एक और कृति लब्धिसार नामक है. जिसमें आत्मशुद्धि रूप लब्धियों को प्राप्त करने की विधि समझाई गयी है । अपनी ब्रव्यसंग्रह नामक एक ५८ गाथायुक्त अन्य कृति द्वारा नेमिचन्द्र ने जीव तथा अजीव तत्त्वों को विधिवत् समझाकर एक प्रकार से संपूर्ण जैन तत्त्वज्ञान का प्रतिपादन कर दिया है । लब्धिसार के साथ साथ एक कृति क्षपणासार भी मिलती है, जिनमें कर्मों को खपाने की विधि समझाई गई है । इसकी प्रशस्ति के अनुसार इसे माधवचन्द्र त्रैविद्य ने बाहुबलि मंत्री की प्रार्थना से लिखकर शक सं० ११२५ ( ई० सन् १२०३ ) में पूर्ण किया था । ८० षट्खंडागम की परम्परा की द्वितीय महत्वपूर्ण रचना है पंचसंग्रह जो अभी प्रकाशित हुई है । इसमें नामानुसार पांच अधिकार ( प्रकरण) हैं: जीवसमास, प्रकृति समुत्कीर्तन कर्मस्तव, शतक और सत्तरि अर्थात् सप्ततिका, जिनमें क्रमानुसार २०६, १२,७७, १०५ और ७० गाथाएं हैं । प्रकृति समुत्कीर्तन में कुछ भाग गद्यात्मक भी है। इसकी बहुत सी गाथाएं धवला और गोम्मटसार के समान ही हैं । अंतिम दो प्रकरणों पर गाथाबद्ध भाष्य भी है, जिसकी गाथाएं भी गोम्मटसार से मिलती हैं । ये भाष्य गाथाएं मूलग्रंथ से मिश्रित पाई जाती हैं । शतक नामक प्रकरण के आदि में कर्ता ने स्पष्ट कहा है कि मैं यहाँ कुछ गाथाएं दृष्टिवाद से लेकर कहता हूँ (वोच्छं कविवद गाहाओ दिट्ठिवादाओ ) । शतक के अंत में १०३ वीं गाथा में कहा गया है कि यहाँ बंध- समास का वर्णन कर्म प्रवाद नामक श्रुतसागर का रस मात्र ग्रहण करके किया गया है । जैसा हम ऊपर देख चुकें हैं, कर्मप्रवाद दृष्टिवाद के अन्तर्गत १४ पूर्वो में से आठवें पूर्व का नाम था । उसी प्रकार सप्तति के प्रारंभ में कहा गया है कि मैं यहाँ दृष्टिवाद के सार को संक्षेप से कहता हूं (वोच्छं संखेवेगं निस्संवं विदिवादावी ) । प्रत्येक प्रकरण मंगलाचरण और प्रतिज्ञात्मक गाथाओं से प्रारंभ होता है, और अपने अपने रूप में परिपूर्ण है। इससे प्रतीत होता है कि आदितः ये पांचों प्रकरण स्वतंत्र रचनाओं के रूप में रहे हैं । इनपर एक संस्कृत टीका भी है, जिसके कर्ता ने अपना परिचय शतक की अंतिम गाथा की टीका में दिया है । यहाँ उन्होंने मूलसंघ के विद्यानंद गुरु भट्टारक मल्लिभूषण, मुनि लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्र, उनके पट्टवर्ती ज्ञानभूषण गणि और उनके शिष्य प्रभाचन्द्र यति के नाम लिये हैं । ये प्रभाचन्द्र ही इस टीका के कर्ता प्रतीत होते हैं । उक्त आचार्य परम्परावर्ती प्रभाचन्द्र का काल संवत् १६२५ से १६३७ तक पाया जाता है । उक्त प्रशस्ति के अन्त की पुष्पिका में मूल ग्रन्थ को पंचसंग्रह अपर नाम लघुगोम्मटसार सिद्धांत कहा है । इस पर से अनुमान होता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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