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________________ ४२ जैन धर्म का उद्गम और विकास गुफा में रहते थे। वहीं उन्होंने पुष्पदंत और भूतवलि नामक आचार्यों को बुलवाकर उन्हें वह ज्ञान प्रदान किया जिसके आधार पर उन्होंने पश्चात् द्रविड़ देश में जाकर षट्खडागम की सूत्र-रूप रचना की। जूनागढ़ के समीप अत्यन्त प्राचीन कुछ गुफाओं का पता चला है जो अब बाबा प्यारा का मठ कहलाती हैं। उनके समीप की एक गुफा में दो खंडित शिलालेख भी मिले हैं जो उनमें निर्दिष्ट क्षत्रपवंशी राजाओं के नामों के आधार से तथा अपने लिपि पर से ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के सिद्ध होते हैं। मैंने अपने एक लेख में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सम्भवतः यही गुफा धरसेनाचार्य की निवासभूमि थी और संभवत वही उनका समाधीमरण हुआ, जिसकी ही स्मृति में वह लेख लिखा गया हो तो आश्चर्य नहीं। लेख जयदामन् के पौत्र रुद्रसिंह (प्र०) का प्रतीत होता है । खंडित होने से लेख का पूरा अर्थ तो नहीं लगाया जा सकता, तथापि उसमें जो केवलज्ञान, जरामरण से मुक्ति आदि शब्द स्पष्ट पढ़े जाते हैं, उनसे उसका किसी महान् जैनाचार्य की तपस्या व समाधिमरण से संबंध स्पष्ट है। उस गुफा में अंकित स्वस्तिक, भद्रासन, मीन युगल आदि चिह्न भी उसके जैनत्व को सिद्ध करते हैं । ढंक नामक स्थान पर की गुफाएँ और उनमें की ऋषभ, पार्श्व, महावीर व अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ भी उसी काल की प्रतीत होती हैं। गिरनार में धरसेनाचार्य का उपदेश ग्रहण कर पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों के द्रविड़ देश को जाने और वहीं आगम की सूत्र-रूप रचना करने के वृतान्त से यह भी सिद्ध होता है कि उक्त काल में काठियावाड़-गुजरात से लेकर सुदूर तामिल प्रदेश तक जैन मुनियों का निर्बाध गमनागमन हुआ करता था । आगामी शतादियों में गुजरात में जैनधर्म का उत्तरोत्तर प्रभाव बढ़ता हुआ पाया जाता है। यहाँ वीर निर्वाण के ६८० वर्ष पश्चात् वलभीनगर में क्षमाश्रमण देवद्धिगणि की अध्यक्षता में जैन मुनियों का एक विशाल सम्मेलन हुआ जिसमें जैन आगम के अंगोपांग आदि वे ४५-५० ग्रय संकलित किये गये जो श्वेताम्बर परम्परा में सर्वोपरि प्रमाणभूत माने जाते हैं और जो अर्द्धमागधी प्राकृत की अद्वितीय उपलभ्य रचनाएं हैं। सातवीं शती के दो गुर्जरनरेशों, जयभट (प्र०) और दड्ड (द्वि०) के दान पत्रों में जो उनके वीतराग और प्रशान्तराग विशेषण पाये जाते हैं, वे उनके जैनाधर्मावलम्बित्व को नहीं तो जैनानुराग को अवश्य प्रकट करते हैं । इस प्रदेश के चावडा (चापोत्कट) राजवंश के संस्थापक वनराज के जैनधर्म के साथ सम्बन्ध और उसके विशेष प्रोत्साहन के प्रमाण मिलते हैं। इस वंश के प्रतापी नरेन्द्र मूलराज ने अपनी राजधानी अनहिलवाड़ा में मूलवसतिका नामक जैन मंदिर बनवाया, जो अब भी विद्यमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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