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________________ Yo जन धर्म का उद्गम और विकास प्रायः सभी राजाओं ने जैन मंदिरों और आश्रमों को दान दिये थे। इस वंश के सबसे अधिक प्रतापी नरेश विष्णुवर्धन के विषय में कहा जाता है कि उसने रामानुजाचार्य के प्रभाव में पड़कर वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया था। किन्तु इस बात के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं कि वह अपने राज्य के अन्त तक जैनधर्म के प्रति उपकारी और दानशील बना रहा। ई० सन् ११२५ में भी उसने जैन मुनि श्रीपाल विद्यदेव की आराधना की, शल्य नामक स्थान पर जैन विहार बनवाया तथा जैन मंदिरों व मुनियों के आहार के लिए दान दिया। एक अन्य ई० सन् ११२६ के लेखानुसार उसने मल्लिजिनालय के लिए एक दान किया । ई० सन् ११३३ में उसने अपनी राजधानी द्वारासमुद्र में ही पार्श्वनाथ जिनालय के लिए एक ग्राम का दान किया, तथा अपनी तत्कालीन विजय की स्मृति में वहाँ के मूल नायक को विजय-पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध किया और अपने पुत्र का नाम विजयसिंह रक्खा, और इस प्रकार उसने अपने परम्परागत धर्म तथा नये धारण किये हुए धर्म के बीच संतुलन बनाये रखा। उसकी रानी शांतलदेवी आजन्म जैन धर्म की उपासिका रही और जैन मंदिरों को अनेक दान देती रही उसके गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव थे, और उसने सन् ११२१ में जैन समाधि-मरण की संहलेख ना विधि से देह त्याग किया। विष्णुवर्धन के अनेक प्रभावशाली मंत्री और सेनापति भी जैन धर्मानुयायी थे। उसके गंगराज सेनापति ने अनेक जैनमंदिर बनवाये, अनेकों का जीर्णोद्धार किया तथा अनेकों जैन संस्थाओं को विपुलदान दिये। उसकी पत्नी लक्ष्मीमति ने भी जैन संल्लेखना विधि से मरण किया, जिसकी स्मृति में उसके पति ने श्रवणबेलगोला के पर्वत पर एक लेख खुदवाया । उसके अन्य अनेक सेनापति, जैसे बोप्प, पुनिस मरियाने व भरतेश्वर, जैन मुनियों के उपासक थे और जैन धर्म के प्रति बड़े दानशील थे, इसके प्रमाण श्रवणबेलगोला व अन्य स्थानों के बहुत से शिलालेखों में मिलते हैं । विष्णुवर्द्धन के उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम ने श्रवणबेलेगोला की वंदना की तथा अपने महान सेनापति हुल्ल द्वारा बनवाये हुए चविशति जिनालय को एक ग्राम का दान दिया। होयसल नरेश वीर-बल्लाल द्वितीय व नरसिंह तृतीय के गुरु जैन मुनि थे। इन नरेशों ने तथा इस वंश के अन्य अनेक राजाओं ने जैन मंदिर बनवाये और उन्हें बड़े-बड़े दानों से पुष्ट किया। इस प्रकार यह पूर्णतः सिद्ध है कि होयसल वंश के प्रायः सभी नरेश जैन धर्मानुयायी थे और उनके साहाय् एवं संरक्षण द्वारा जैन मंदिर तथा अन्य धार्मिक संस्थाएँ दक्षिण प्रदेश में खूब फैली और समृद्ध हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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