SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चालुक्य और होयसल राजवंश मान्यखेट एक अच्छा जैन केन्द्र बन गया था, और यही कारण है कि संवत् १०२६ के लगभग जब धारा के परमारवंशी राजा हर्षदेव के द्वारा मान्यखेट नगरी लूटी और जलाई गई, तब महाकवि पुष्पदंत के मुख से हठात् निकल पड़ा कि " जो मान्यखेट नगर दीनों श्रौर अनाथों का धन था, सदैव बहुजन पूर्ण और पुष्पित उद्यानवनों से सुशोभित होते हुए ऐसा सुन्दर था कि वह इन्द्रपुरी की शोभा को भी फीका कर देता था, वह जब धारानाथ की कोपाग्नि से दग्ध हो गया तब, अब पुष्पदंत कवि कहाँ निवास करें" । (अप. महापुराणसंधि ५० ) चालुक्य और होयसल राजवंश - चालुक्यनरेश पुलकेशी ( द्वि०) के समय में जैन कवि रविकीर्ति ने ऐहोल में मेघुति मन्दिर बनवाया और वह शिलालेख लिखा जो अपनी ऐतिहासिकता तथा संस्कृत काव्यकला की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है । उसमें कहा गया है कि रविकीर्ति की काव्यकीर्ति कालिदास और भारवि के समान थी । लेख में शक ५५६ सं० ( ई० सन् ६३४) का उल्लेख है और इसी आधार पर संस्कृत के उक्त दोनों महाकवियों के काल की यही उत्तरावधि मानी जाती हैं । लक्ष्मेश्वर से प्राप्त अनेक दानपत्रों में चालुक्य नरेश विनयादित्य, विजयादित्य और विक्रमादित्य द्वारा जैन आचार्यों को दान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं। बादामी और ऐहोल की जैन गुफायें और उनमें की तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी इसी काल की सिद्ध होती हैं । ३६ ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से दक्षिण में पुनः चालुक्य राजवंश का बल बड़ा । यह राजवंश जैनधर्म का बड़ा संरक्षक रहा, तथा उसके साहाय्य से दक्षिण में जैनधर्म का बहुत प्रचार हुआ और उसकी ख्याति बढ़ी | पश्चिमी चालुक्य वंश के संस्थापक तैलप ने जैन कन्नड़ कवि रन्न को आश्रय दिया । तैलप के उत्तराधिकारी सत्याश्रय ने जैनमुनि विमलचन्द्र पंडित देव को अपना गुरु बनाया । इस वंश के अन्य राजाओं, जैसे जयसिंह द्वितीय, सोमेश्वर प्रथम और द्वितीय, तथा विक्रमादित्य षष्ठम ने कितने ही जैन कवियों को प्रोत्साहित कर साहित्य-स्रजन कराया, तथा जैन मंदिरों व अन्य जैन संस्थाओं को भूमि आदि का दान देकर उन्हें सबल बनाया । होयसल राजवंश की तो स्थापना ही एक जैनमुनि के निमित्त से हुई कही जाती है । विनयादित्य नरेश के राज्यकाल में जैनमुनि वर्द्धमानदेव का शासन के प्रबन्ध में भी हाथ रहा कहा जाता है । इस वंश के दो अन्य राजाओं के गुरु भी जैनमुनि रहे । इस वंश के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy