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________________ दिगम्बर आम्नाय में गणभेद मूल सिद्धान्त यह था कि कोई वस्तु एक समय की क्रिया से उत्पन्न नही होती, अनेक समयों में उत्पन्न होती है । दूसरा निन्हव इसके दो वर्ष पश्चात् तिष्यगुप्त द्वारा ऋषभपुर में उत्पन्न हुआ कहा गया है। इसके अनुयायी जीवप्रदेशक कहलाए, क्योंकि वे जीव के अंतिम प्रदेश को ही जीव की संज्ञा प्रदान करते थे । अव्यक्त नामक तीसरा निन्हव, निर्वाण से २१४ वर्ष पश्चात् आषाढ़ - आचार्य द्वारा श्वेतविका नगरी में स्थापित हुआ । इस मत में वस्तु का स्वरूप अव्यक्त अर्थात अस्पष्ट व अज्ञेय माना गया है । चौथा समुच्छेद नामक निन्हव, निर्वाण से २२० वर्ष पश्चात् प्रश्वमित्र - आचार्य द्वारा मिथिला नगरी में उत्पन्न हुआ । इसके अनुसार प्रत्येक कार्य अपने उत्पन्न होने के अनन्तर समय में समस्त रूप से व्युच्छिन्न हो जाता है, अर्थात् प्रत्येक उत्पादित वस्तु क्षणस्थायी है । यह मत बौद्ध दर्शन के क्षणिकत्ववाद से मेल खाता प्रतीत होता है | पांचवां निन्हव निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् गंग- आचार्य द्वारा उल्लुकातिर पर उत्पन्न हुआ। इसका नाम द्विक्रिया कहा गया है । इस मत का मर्म यह प्रतीत होता है कि एक समय में केवल एक ही नहीं, दो क्रियाओं का अनुभवन संभव है । छठवां त्रैराशिक नामक निन्हव छल्लुक मुनि द्वारा पुरमंतरंजिका नगरी में उत्पन्न हुआ । इस मत के अनुयायी वस्तु-विभाग तीन राशियों में करते थे; जैसे जीव, अजीव, और जीवाजीव । सातवां निन्हव अबद्ध कहलाता है, जिसकी स्थापना वी० निर्वाण से ५८४ वर्ष पश्चात् गोष्ठा माहिल द्वारा दशपुर में हुई इस मत का मर्म यह प्रतीत होता है कि कर्म का जीव से स्पर्श मात्र होता है, बन्धन नहीं होता । इन सात निन्हवों के अनन्तर, वीर निर्वाण के ६०६ वर्ष पश्चात् बोटिक निन्हव अर्थात दिगम्बर संघ की उत्पत्ति कही गई है (स्था ७, वि० आवश्यक व तपा० पट्टा० ) । दिगम्बर परम्परा में उपर्युक्त सात नन्हों का तो कोई उल्लेख नही पाया जाता, किन्तु वि० सं० के १३६ वर्षं उपरान्त श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति होने का स्पष्ट उल्लेख ( दर्शनसार गा० ११) पाया जाता है । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति के काल में, व दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर संप्रदाय के उत्पत्तिकाल - निर्देश में केवल ३ वर्षो का अन्तर पाया जाता है । इन उल्लेखों पर से यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि महावीर के संघ में दिगम्बर - श्वेताम्बर संप्रदायों का स्पष्ट रूप से भेद निर्वाण से ६०० वर्ष पश्चात् हुआ । दिगम्बर आम्नाय में गणभेद दिगम्बर मान्यतानुसार महावीर निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष की आचार्य परम्परा का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। कहा गया है कि Jain Education International ३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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