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________________ जैन धर्म का उद्गम और विकास जिसके भीतर महागिरि ने ३० वर्ष, सुहस्ति ने ४६ और गुणसुन्दर ने ३२ वर्ष जैन संघ का नायकत्व किया। मौर्यों के पश्चात् राजा पुष्पमित्र ने ३० वर्ष तथा बलमित्र और भानुमित्र ने ६० वर्षं राज्य किया। इस बीच गुणसुन्दर ने अपनी आयु के शेष १२ वर्ष, कालिक ने ४० वर्ष और स्कंदिल ने ३८ वर्ष जैन संघ का नायकत्व किया । इस प्रकार महावीर निर्वाण से ४१३ वर्ष व्यतीत हुए । भानुमित्र के पश्चात् राजा नरवाहन ने ४०, गर्दभिल्ल ने १३ और शक ने ४ वर्ष पर्यन्त राज्य किया और इसी बीच रेवतीमित्र द्वारा ३६ वर्ष तथा आर्य-मंगु द्वारा २० वर्ष जैन संघ का नायकत्व चला। इस प्रकार महावीर निर्वाण से लेकर ४७० वर्षं समाप्त हुए । गर्दभिल्ल के राज्य की समाप्ति कालकाचार्य द्वारा कराई गई और उसके पुत्र विक्रमादित्य ने राज्यारूढ़ होकर, ६० वर्ष तक राज्य किया । इसी बीच जैन संघ में बहुल, श्रीव्रत, स्वाति, हारि श्यामार्य एवं शाण्डिल्य आदि हुए. प्रत्येक बुद्ध एवं स्वयंबुद्ध परम्परा का विच्छेद हुआ, बुद्धबोधितों की अल्पता, तथा भद्रगुप्त, श्रीगुप्त और व्रत्रस्वामी, ये आचार्य हुए। विक्रमादित्य के पश्चात् धर्मादित्य ने ४० और माइल्ल ने ११ वर्ष राज्य किया, और इस प्रकार वीर निर्वाण के ५८१ वर्ष व्यतीत हुए । तत्पश्चात् दुर्वलिका पुष्पमित्र के २० वर्ष तथा राजा नाहड के ४ ( ? ) वर्ष समाप्त होने पर वीर निर्वाण से ६०५ वर्षं पश्चात् शक संवत् प्रारंभ हुआ । वीर निर्वाण के ९६३ वर्ष व्यतीत होने पर कालकसूरि ने पर्युषणचतुर्थी की स्थापना की, तथा निर्वाण के ६८० वर्ष समाप्त होने पर आर्य - महागिरि की संतान में उत्पन्न श्री देवद्विगणि क्षमाश्रमण ने कल्पसूत्र की रचना की एवं इसी वर्ष श्रानंदपुर में ध्रुवसेन राजा के पुत्र मरण से शौकार्त होने पर उनके समाधान हेतु कल्पसूत्र सभा के समक्ष कल्पसूत्र की वाचना हुई । यह बहुश्रुतों की परम्परा से ज्ञात हुआ । इतनी वार्ता के पश्चात् यह 'दुषमकाल श्रमण संघस्तव की अबचूरि' इस समाचार के साथ समाप्त होती है कि वीर निर्वाण के १३०० वर्ष समाप्त होने पर विद्वानों के शिरोमणि श्री बप्पभट्टि सूरि हुए । सात निन्हव व दिगम्बर - स्वेताम्बर सम्प्रदाय ३० ऊपर जिन गणों कुलों व शाखाओं का उल्लेख हुआ है, उनमें कोई विशेष सिद्धान्त-भेद नहीं पाया जाता । सिद्धान्त-भेद की अपेक्षा से हुए सात निन्हवों का उल्लेख पाया जाता है । पहला निन्हव महावीर के जीवन काल में ही उनकी ज्ञानोत्पत्ति के चौदह वर्ष पश्चात् उनके एक शिष्य जमालि द्वारा श्रावस्ती में उत्पन्न हुआ । इस निन्हव का नाम बहुरत कहा गया, क्योकि यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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