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जैन संस्कृति
पर ही कोई पूर्ण स्वतन्त्र्य व बन्धन-मुक्ति रूप मोक्ष का अधिकारी हो सकता है । यही, जैन दर्शनानुसार, जीवन का सर्वोच्च ध्येय और लक्ष्य है ।
_ व्यावहारिक दृष्टि से विरोध में सामञ्जस्य, कलह में शान्ति व जीव मात्र के प्रति आत्मीयता का भाव उत्पन्न होना ही सच्चा दर्शन, ज्ञान और चरित्र है जिसकी आनुषंगिक साधनायें हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप नियम तथा क्षमा, मृदुता आदि गुण । नाना प्रकार के व्रतों और उपवासों, भावनाओं और तपस्याओं, ध्यानों और योगों का उद्देश्य यही विश्वजनीन आत्मवृत्ति प्राप्त करना है । समत्व का बोध और अभ्यास कराना हो अनेकान्त व स्याद्वाद जैसे सिद्धान्तों का साध्य हैं ।
जीवन में इस वृत्ति को स्थापित करने के लिये तीथंकरों और आचार्यों ने जो उपदेश दिया वह सहस्त्रों जैन ग्रन्थों में ग्रथित है। ये ग्रन्थ नाना प्रदेशों और भिन्न भिन्न युगों की विविध भाषाओं में लिखे गये । अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश प्राकृतों और संस्कृत में जैन धर्म का विपुल साहित्य उपलभ्य है जो अपने भाषा, विषय, शैली व सजावट के गुणों द्वारा अपनी विशेषता रखता है । आधुनिक लोक-भाषाओं व उनकी साहित्यिक विधाओं के विकास को समझने के लिये तो यह साहित्य अद्वितीय महत्त्वपूर्ण
साहित्य के अतिरिक्त गुफाओं, स्तूपों, मन्दिरों और मूर्तियों तथा चित्रों आदि ललित कला की निर्मितियों द्वारा भी जैन धर्म ने, न केवल लोक का आध्यात्मिक व नैतिक स्तर उठाने का प्रयत्न किया है, किन्तु समस्त देश के मिन्न-भिन्न भागों को सौन्दर्य से सजाया है। इनके दर्शन से हृदय विशुद्ध और आनन्द विभोर हो जाता है ।
जैन धर्म की इन विविध और विपुल उपलब्धियों को जाने-समझे बिना भारतीय संस्कृति का ज्ञान परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता। जैन धर्म मे वर्णजाति-रूप समाज विभाजन को कभी महत्त्व नहीं दिया। यह बात राष्ट्रीय दृष्टि से ध्यान देने योग्य है। आज के ईर्ष्या और संघर्ष के विष से दग्ध संसार को जीवमात्र को कल्याण और उत्कर्ष की भावनाओं से ओत-प्रोत इस उपदेशामृत की बड़ी आवश्यकता है ।
'अक्खर-पयस्थ-हीरणं मत्ता-होणं च मए भरिणयं । तं खमउ जाणदेवय माझ वि दुक्खक्खयं विन्तु ।।' "अक्षर-मात्र-पद-स्वरहीनं व्यंजन-संधि-विवजित-रेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्र-समुद्रे ।'
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