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________________ उपसंहार उपयुक्त चार व्याख्यानों में जैन जैनधर्म के इतिहास, साहित्य तत्वज्ञान और कला का जो संक्षेप परिचय दिया गया है उससे उसकी मौलिक प्रेरणाओं और साधनाओं द्वारा भारतीय संस्कृति की परिपुष्टि का स्वरूप समझा जा सकता है । इस धर्म की आधार-भूमि उतनी ही प्राचीन है जितनी प्राचीनतम वैदिक परम्परा, क्योंकि ऋग्वेद में ही केशी जैसे वातरशना मुनियों की उन साधनाओं का उल्लेख है जो उन्हें वैदिक ऋषियों से पृथक् तथा श्रमण मुनियों से अभिन्न प्रमाणित करती हैं । केशी और आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का एकत्व भी हिन्दू और जैन पुराणों से सिद्ध होता है । कोश ल से प्रारम्भ होकर यह श्रमण धर्म पूर्व की ओर बिदेह और मगध, तथा पश्चिम की और तक्षशिला व सौराष्ट्र तक फैला; एवं अन्तिम तीर्थंकर महावीर द्वारा ईस्वी पूर्व छठी शती में अपना सुव्यवस्थित स्वरूप पाकर उनके अनुयायियों द्वारा अखिल देश व्यापी बना । उसने समय-समय पर उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न राजवंशों एवं बहुजन समाज को प्रभावित किया, तथा अपने आन्तरिक गुणों के फल-स्वरूप वह अविच्छिन्न धारावाही रूप से आज तक देश में अपना अस्तित्व सुरक्षित रख हुए हैं। जिन आन्तरिक गुणों के बल पर जैनधर्म गत तीन-चार हजार वर्षों से इस देश के जन-जीवन में व्याप्त है वे हैं उसकी आध्यात्मिक भूमिका, नैतिक विन्यास एवं व्यवहारिक उपयोगिता और संतुलन । यहाँ प्रकृति के जड़ और चेतन तत्वों की सत्ता को स्वीकार कर चेतन को जड़ से ऊपर उठाने और परमात्मत्व प्राप्त कराने की कला का प्रतिपादन किया गया है । विश्व के अनादि-अनन्त प्रवाह से जड़ चेतन रूप द्रव्यों के नाना रूपों और गुणों के विकास के लिये यहां किसी एक ईश्वर की इच्छा व अधीनता को स्वीकार नही किया गया, जीव और अजीव तत्त्वों के परिणामी नित्यत्व गुण के द्वारा ही समस्त विकार और विकास के मर्म को समझने-समझाने का प्रयत्न किया गया है। सत्ता स्वयं उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, और ऐसी सत्ता रखने वाले समस्त द्रव्य गुण-पर्याय-युक्त है। इन्हीं मौलिक सिद्धान्तों में जैन-दर्शन-सम्मत पदार्थों के नित्यानित्यत्व स्वरूप का मर्म अन्तर्निहित है। इस जानकारी के अभाव में प्राणी भ्रान्त हुए भटकते और बन्धन में पड़े रहते हैं । इस तथ्य की ओर सच्ची दृष्टि और उसका सच्चा ज्ञान एवं तदनुसार पाचरण हो जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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