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जैन कला
कुछ अधिक सुलभ प्रतीत होता है । अथवा चित्रकला की भोर धनिक रुचियों का ध्यान आकर्षित हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप न केवल चित्रण में, किन्तु ग्रंथ लेखन में भी सुवर्ण व चांदी की स्याहियों का प्रचुरता से प्रयोग होने लगा सुवर्ण की चमक से चित्रकार यहां तक प्रभावित हुए पाये जाते हैं कि बहुधा समस्त चित्रभूमि सुवर्ण-लिप्त कर दी जाने लगी, एवं जैन मुनियों के वस्त्र भी सुवर्ण-रंजित प्रदर्शित किये जाने लगे। जितना अधिक सुवर्ण का उपयोग, उतना अधिक सौन्दर्य, इस भावना को कलाभिरुचि की एक विकृति ही कहना चाहिए । तथापि इसमें संदेह नहीं कि नाना रंगों के बीच सुवर्ण के समुचित उपयोग से कागज पर की चित्रकारी में एक अपूर्व सौन्दर्य उत्पन्न हो गया है ।
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काष्ठ चित्र
पट के मध्य में जैन
।
मूर्ति के दोनों
जैन शास्त्र भण्डारों में काष्ठ के ऊपर भी चित्रकारी के कुछ नमूने प्राप्त हुए हैं । ये काष्ठ आदितः ताड़पत्रों की प्रतियों की रक्षा के लिए उनके ऊपरनीचे रखे जाते थे । ऐसा एक सचित्र काष्ठ चित्रपट मुनि जिनविजयजी को जैसलमेर के ज्ञान भण्डार से प्राप्त हुआ है । यह २७ इंच लम्बा और ३ इंच चौड़ा है। रंग ऐसे पक्के हैं कि वे पानी से धुलते नहीं । मन्दिर की प्रकृति है, जिसमें एक जिन मूर्ति विराजमान है ओर परिचारक खड़े हैं । दाहिनी ओर कोष्टक में दो उपासक अंजलि - - मुद्रा में खड़े हैं, दो व्यक्ति डिंडिम बजाने में मस्त हैं, और दो नत कियां नृत्य कर रही हैं। ऊपर की ओर आकाश में एक किन्नरी उड़ रहीं हैं । बाएं प्रकोष्ठ में तीन उपासक हाथ जोड़े हैं, और एक किन्नर आकाश में उड़ रहा है । इस मध्यवर्ती चित्र के दोनों ओर व्याख्यान-सभा हो रही है । एक में आचार्य जिनदत्त सूरि विराजमान हैं, और उनका नाम भी लिखा है । उनके सम्मुख पं० जिनरक्षित बैठे हुए हैं । अन्य उपासक उपासिकाएं भी हैं। मुनि के सम्मुख स्थापनाचार्य रखा हुआ है और उस पर महावीर का नाम भी लिखा है । दाहिनी ओर की व्याख्यान-सभा में आचार्य जिनदत्त, गुणचन्द्राचार्य से विचार-विमर्श कर रहे हैं । इन दोनों के बीच में भी स्थापनाचार्य बना हुआ है। मुनि जिनविजयजी का अनुमान है कि यह चित्रपट जिनदत्त सूरि के जीवन काल का ही हो तो आश्चर्यं नहीं । उनका जन्म वि० सं० ११३२, और स्वर्गवास वि० सं० १२११ में हुआ सिद्ध है । सम्भव है उपयुक्त चित्रण उनके मारवाड़ अन्तर्गत विक्रमपुर के मंदिर में दीक्षाग्रहरण के काल का ही हो। मुनि जिनविजयजी द्वारा जैसलमेर के ज्ञान भण्डार से एक और सचित्र काष्ठ-पट का पता चला है, जो ३० इंच लम्बा और ३ इंच चौड़ा है । इसमें वादिदेव सूरि और आचार्य कुमुदचन्द्र के
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