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________________ जैन मन्दिर ३३५ आरूढ़ विमलशाह और उनके वंशजों की मूर्तियां हैं जिन्हें उनके एक वंशज पृथ्वीपाल ने ११५० ई० के लगभग निर्माण कराया । (२) इसके मागे २५ फुट लम्बा-चौड़ा मुख-मंडप है । (३) और उससे आगे देवकुलों की पंक्ति व भमिति और प्रदक्षिणा-मंडप है, जिसका ऊपर वर्णन किया जा चुका है । तत्पश्चात् मुख्य मन्दिर का रंगमंडप या समा-मंडप मिलता है, जिसका गोल शिखर २४ स्तम्भों पर आधारित है। प्रत्येक स्तम्भ के अग्रभाग पर तिरछे शिलापट आरोपित हैं जो उस भव्य छत को धारण करते हैं। छत की पद्मशिला के मध्य में बने हुए लोलक की कारीगरी अद्वितीय और कला के इतिहास में विख्यात है । उत्तरोत्तर छोटे होते हुए चन्द्रमंडलों (ददरी) युक्त कंचुलक कारीगरी सहित १६ विद्याधारियों कि आकृतियां अत्यन्त मनोज्ञ हैं । इस रंगमंडपकी समस्त रचना व उत्कीर्णन के कौशल को देखते हुए दर्शक को ऐसा प्रतीत होने लगता है, जैसे मानों वह किसी दिव्य लोक में आ पहुंचा हो । रंगशाला से आगे चलकर नवचौकी मिलती है, जिसका यह नाम उसकी छत के ६ विभागों के कारण पड़ा हैं । इससे आगे गूढ़मंडप है । वहां से मुख्य प्रतिमा का दर्शन-वंदन किया जाता है। इसके सम्मुख वह मूल गर्भगृह है, जिसमें ऋषभनाथ की धातु प्रतिमा विराजमान है। इसी मंदिर के सम्मुख लण-वसही है जो उसके मूलनायक के नाम से नेमिनाथ मन्दिर भी कहलाता है, और जिसका निर्माण ढोलका के बघेलवंशी नरेश वीर धवल के दो मंत्री भ्राता तेजपाल और वस्तुपाल ने सन् १२३२ ई० में कराया था। तेजपाल मंत्री के पुत्र लूणसिंह की स्मृति में बनवाये जाने के कारण मन्दिर का यह नाम प्रसिद्ध हुआ। इस मन्दिर का विन्यास व रचना भी प्रायः आदिनाथ मन्दिर के सदृश है । यहाँ भी उसी प्रकार का प्रांगण, देवकुल तथा स्तम्म-मण्डपों की पंक्ति विद्यमान है । विशेषता यह है कि इसकी हस्तिशाला उस प्रांगण के बाहर नहीं, किन्तु भीतर ही है । रंगमंडप, नवचौकी, गूढ़मंडप और गर्भगह की रचना पूर्वोक्त प्रकार की ही है। किन्तु यहां रंगमंडप के स्तम्भ कुछ अधिक ऊँचे हैं, और प्रत्येक स्तम्भ की बनावट व कारीगरी भिन्न है । मण्डप की छत कुछ छोटी है, किन्तु उसकी रचना व उत्कीर्णन का सौन्दर्य वसही से किसी प्रकार कम नहीं है। इसके रचना-सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए फगुसन साहब ने कहा है कि “यहाँ संगमरमर पत्थर पर जिस परिपूर्णता, जिस लालित्य व जिस सन्तुलित अलंकरण की शैली से काम किया गया है, उसकी अन्य कहीं भी उपमा मिलना कठिन है। इन दोनों मंदिरों में संगमरमर की कारीगरी को देखकर बड़े-बड़े कला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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