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________________ ३३२ जैन कला युक्त १३ वीं गाथा से पूर्व ही रेवा (नर्मदा) के उभयतट, उसके पश्चिम तट पर सिद्धवर कूट तथा बड़वानी नगर के दक्षिण में चूलगिरि शिखर का सिद्ध क्षेत्र के रूप में उल्लेख हैं। इन्हीं स्थलों के समीपवर्ती होने से यह स्थान पावागिरि प्रमाणित होता है। ग्राम के आसपास और भी अनेक खंडहर दिखाई देते हैं। जनश्रुति है कि यहां बल्लाल नामक नरेश ने व्याधि से मुक्त होकर सौ मन्दिर बनवाने का संकल्प किया था, किन्तु अपने जीवन में वह ६६ ही बनवा पाया । इस प्रकार एक मन्दिर कम रह जाने से यह स्थान 'ऊन' नाम से प्रसिद्ध हुआ (इन्दौर स्टेट गजेटियर, भाग १ पृ० ६६९) । हो सकता है ऊन नाम की सार्थकता सिद्ध करने के लिये ही यह पाख्यान गढ़ा हो। किन्तु यदि उसमें कुछ ऐतिहासिकता हो तो बल्लाल नरेश होयसल वंश के वीर-बल्लाल (द्वि०) हो सकते हैं जिनके गुरु एक जैन मुनि थे। (पृ० ४०) मध्यप्रदेश के पश्चात् हमारा ध्यान राजपूताने के मंदिरों की ओर जाता है । अजमेर के समीप बड़ली ग्राम से एक स्तम्भ-खंड मिला है जिसे वहां के भैरोंजी के मंदिर का पुजारी तमाखू कूटने के काम में लाया करता था। यह षट्कोण स्तम्भ का खंड रहा है जिसके तीन पहलु इस पाषाण-खंड में सुरक्षित है, और उनपर १३४ १०३ इंच स्थान में एक लेख खुदा हुआ है । इसकी लिपि विद्वानों के मतानुसार अशोक की लिपित्रों से पूर्वकालीन है। भाषा प्राकृत है, और उपलब्ध लेख-खंड पर से इतना स्पष्ट पढ़ा जाता हैं कि वीर भगवान् के लिये, अथवा भगवान् के, ८४ वें वर्ष में मध्यमिका में कुछ निर्माण कराया गया। इस पर से अनुमान होता है कि महावीर-निर्वाण से ८४ वर्ष पश्चात् (ई० पू० ४४३) में दक्षिण-पूर्व राजपूताने की उस अतिप्राचीन व इतिहासप्रसिद्ध मध्यमिका नामक नगरी में कोई मंडप या चैत्यालय बनवाया गया था। दुर्भाग्यतः इसके दीर्घकाल पश्चात् तक की कोई निर्मितियां हमें उपलब्ध नहीं है । किन्तु साहित्य में प्राचीन जैन मन्दिरों आदि के बहुत से उल्लेख मिलते हैं । उदाहरणार्थ, जैन हरिवंशपुराण की प्रशस्ति में इसके कर्ता जिनसेनाचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि शक संवत् ७०५ (ई० ७८३) में उन्होंने वर्धमानपूर के पाालय (पार्श्वनाथ के मंदिर) की अन्नराज-वसति में बैठकर हरिवंशपुराण की रचना की और उसका जो भाग शेष रहा उसे वहीं के शान्तिनाथ मन्दिर में बैठकर पूरा किया । उस समय उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में कृष्ण के पुत्र श्रीवल्लल्म व पश्चिम में वत्सराज तथा सौरमंडल में वीरवराह नामक राजाओं का राज्य था । यह वर्धमानपुर सौराष्ट्र का वर्तमान बढ़वान माना जाता है । किन्तु मैंने अपने एक लेख में सिद्ध किया है कि हरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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