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________________ ३२४ जैन कला उपयोग किया गया; और इस परिवर्तन के अनुसार स्थापत्य में भी कुछ सूक्ष्मता व लालित्य का वैशिष्टय आ गया है ऊपर की ओर उठती हुई भूमिकाओं की कपोतपालियां भी कुछ विशेष सूक्ष्मता व लालित्य को लिये हुए हैं। कोनों पर व बीच-बीच में टोपियों के निर्माण ने एक नवीन कलात्मकता उत्पन्न की है, जो आगामी काल में उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। ऊपर के तल्ले में भी गर्भगृह व तीर्थकर की मूर्ति है, तथा शिखर-भाग इतना ऊँचा उठा हुआ है कि जिससे एक विशेष भव्यता का निर्माण हुआ है। शिखर की स्तूपिका की बनावट में एक विशेष संतुलन दिखाई देता है । भित्तियों पर भी चित्रकारी की विशेषता है। छोटे-छोटे कमानीदार आलों पर कीर्तिमुखों का निर्माण एक नई कला है; जो इससे पूर्व की कृतियों में प्रायः दृष्टिगोचर नहीं होती। ऐसे प्रत्येक आले में एक-एक पद्मासन जिनमूत् िउत्कीर्ण है । मित्तियां स्तम्भाकृतियों से विभाजित हैं, जिनके कुछ अन्तरालों में छोटी-छोटी मंडपाकृतियां बनाई गई हैं। यहां महावीर भगवान् की बड़ी सुन्दर मूर्ति विराजमान थी जो इधर कुछ वर्षों से दुर्भाग्यतः विलुप्त हो गई है। भीतरी मंडप के द्वार पर पूर्वोक्त लेख खुदा हुआ है। ऊपर पद्मासन जिनमूर्ति है और उसके दोनों ओर चन्द्र-सूर्य दिखाये गये । है। लकुडी के इस जैन मन्दिर ने द्राविड़ वास्तु-शिल्प को बहुत प्रभावित किया है। द्राविड़ वास्तु-कला चालुक्य काल में जिस प्रकार पुष्ट हुई वह हम देख चुके । इसके पश्चात् होयसल राजवंश के काल में (१३ वीं शती में) उसमें और भी वैशिष्ट्य व सौष्ठव उत्पन्न हुआ जिसकी विशेषता है अलंकरण की रीति में समुन्नति । इस काल की वास्तु-कला, न केवल पूर्वकालीन पाषाणोकीर्णन कला को आगे बढ़ाती है, किन्तु उस पर तत्कालीन दक्षिण भारत को चंदन, हाथीदांत व धातु की निर्मितियों आदि का भी प्रभाव पड़ा है। इसके फलस्वरूप पाषाण पर भी कारीगरों की छनी अधिक कौशल से चली है । इस कौशल के दर्शन हमें जिननाथपुर व हलेबोड के जैन मन्दिरों में होते हैं । जिननाथपुर श्रवण बेलगोला से एक मील उत्तर की ओर है। ग्राम का नाम ही बतला रहा है कि वहां जैन मन्दिरों की प्रख्याति रही है। यहां का शांतिनाथ मन्दिर विशेष उल्लेखनीय है। इसे रेचिमय्य नामक सज्जन ने बनवाकर सन् १२०० ई० के लगभग सागरनन्दि सिद्धान्तदेव को सौंपा था। गर्भगृह के द्वारपालों की मूर्तियां देखने योग्य हैं। नवरंग के स्तम्भों पर बड़ी सुन्दर व बारीक चित्रकारी की गई है। छतों की खुदाई भी देखने योग्य है। बाह्य भित्तियों पर रेखा-चित्रों व बेल-बूटों की प्रचुरता से खुदाई की गई है तथा तीर्थंकरों व यक्षयक्षियों आदि की प्रतिमाएं भी सौन्दर्य-पूर्ण बनी हैं। गर्भगृह में शान्तिनाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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