________________
*३२०
जन कला
१५ द्रोणगिरी फलहोड़ी(फलौदी,राजस्थान) गुरुदत्तादि १६ मेढगिरी
मुक्तागिर बैतूल, (म.प्र.) साढ़े तीन कोटी मुनि १७ कुथलगिरी वंशस्थल (महाराष्ट्र) कुलभूषण, देशभूषण १८ कोटिशिला कलिंगदेश (?) यशोधर राजा के पुत्र १६ रेशिंदागिरी
(?) वरदत्तादि पांच मुनि
पार्श्वनाथ काल के इनके अतिरिक्त प्राकृत अतिशय क्षेत्रकांड में मंगलापुर, अस्सारम्य, पोदनपुर, वाराणसी, मथुरा, अहिच्छत्र, जंबुवन निवडकुडली, होलागिरी और गोम्भटेश्वर की वन्दना की गई है । इन सभी स्थानों पर, जहां तक उनका पता चल सका है, एक व अनेक जिनमन्दिर, नाना काल के निर्मापित, तीर्थंकरों के चरण-चिन्हों व प्रतिमाओं सहित आज भी पाये जाते हैं और प्रतिवर्ष सहस्त्रों यात्री उनकी वन्दना कर अपने को धन्य समझते हैं। ___ सबसे प्राचीन जैन मन्दिर के चिन्ह बिहार में पटना के समीप लोहानीपुर . में पाये गये हैं, जहां कुमराहर और बुलंदीबाग की मौर्यकालीन कला-कृतियों की . परम्परा के प्रमाण मिले हैं। यहां एक जैन मंदिर की नींव मिली है। यह मंदिर ८.१० फुट वर्गाकार था । यहां की ईटें मौर्यकालीन सिद्ध हुई हैं। यहीं से एक मौर्यकालीन रजत सिक्का तथा दो मस्तकहीन जिनमूर्तियां मिली है, जो अब पटना संग्रहालय में सुरक्षित है।
वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मंदिर जिसकी रूप रेखा सुरक्षित है, व निर्माण काल मी निश्चित है, वह है दक्षिण भारत में बादामी के समीप ऐहोल का मेधुटी नामक जैन मंदिर जो कि वहां से उपलब्ध शिलालेखानुसार शक संवत् ५५६ (ई०६३४) में पश्चिमी चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय के राज्यकाल में रविकीर्ति द्वारा बनवाया गया था। ये रविकीर्ति मंदिर-योजना में ही नहीं, किन्तु काव्य-योजना में भी अतिप्रवीण और प्रतीभाशाली थे। यह बात उक्त शिलालेख की काव्य-रचना से तथा उसमें उनकी इस स्वयं उक्ति से प्रमाणित होती है कि उन्होंने कविता के क्षेत्र में कालिदास व भारवि की कीर्ति प्राप्त की थी। इस उल्लेख से न केवल हमें रविकीर्ति की काव्यप्रतिभा का परिचय होता है, किन्तु उससे उक्त दो महा-कवियों के काल-निर्णय में बड़ी सहायता मिली है, क्योंकि इससे उनके काल की अन्तिम सीमा सुनिश्चित हो जाती है । यह मंदिर अपने पूर्ण रूप में सुरक्षित नहीं रह सका । उसका बहुत कुछ अंश ध्वस्त हो चुका है । तथापि उसका इतना भाग फिर भी सुरक्षित है कि जिससे उसकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org