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________________ ३०२ जैन कला की। फिर वे सब अपने-अपने विमानों व भवनों को लौट आये, और अपने-अपने चैत्य-स्तंभों के समीप आकर उन जिन-अस्थियों को वज्रमय, गोल वृत्ताकार समुद्गकों (पेटिकाओं) में स्थापित कर उत्तम मालाओं व गंधों से उनकी पूजाअर्चा की।" इस विवरण से सुस्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परानुसार महापुरूषों की चिताओं पर स्तूप निर्माण कराये जाते थे। इस परम्परा की पुष्टि पालि ग्रन्थों के बुद निर्वाण और उनके शरीर-संस्कार संबंधी वृत्तांत से होती है। - महापरिनिम्बानसुत्त में कथन है कि बुद्ध भगवान के शिष्यों ने उनसे पूछा कि निर्वाण के पश्चात् उनके शरीर का कैसा सत्कार किया जाय, तब इसके उत्तर में बुद्ध ने कहा-हे आनंद, जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा के शरीर को वस्त्र से खूब वेष्टित करके तैल की द्रोणी में रखकर चितक बनाकर शरीर को झाँप देते हैं, और चतुर्महा पथ पर स्तूप बनाते हैं, इसी प्रकार मेरे शरीर की भी सत्पूजा की जाय । इससे स्पष्ट है कि उस प्राचीन काल में राजाओं व धार्मिक महापुरूषों की चिता पर अथवा अन्यत्र उनकी स्मृति में स्तूप बनवाने कोप्रथा थी । स्तूप का गोल आकार भी इसी बात की पुष्टि करता हैं, क्योंकि यह आकार श्मशान के आकार से मिलता है । इस संबंध में शतपथ ब्राह्मण का एक उल्लेख भी ध्यान देने योग्य है कि आर्यों के देव श्मशान चौकोर, तथा अनार्यों के आसुर्य श्मशान गोलाकार होते हैं । धार्मिक महापुरुषों के स्मारक होने से स्तूप श्रद्धा और पूजा की वस्तु बन गई, और शताब्दियों तक स्तूप बन वाने और उनकी पूजा-अर्चा किये जाने की परम्परा चालू रही। धीरे-धीरे इन का आकार-परिणाम भी खूब बढ़ा। उनके आसपास प्रदक्षिणा के लिये एक व अनेक वेदिकाएं भी बनने लगीं । उनके आसपास कलापूर्ण कटहरा भी बनने लगा। ऐसे स्तूपों के उत्कृष्ट उदाहरण अभी भी सांची, भरहुत, सारनाथ आदि स्थानों में देखे जा सकते हैं। दुर्भाग्यतः उपलब्ध स्तूपों में जैन स्तूपों का अभाव पाया जाता हैं । किन्तु इस बात के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं कि प्राचीनकाल में जैन स्तूपों का भी खूब निर्माण हुआ था। जिनदास कृत आवश्यकचरिण में उल्लेख है कि अतिप्राचीन काल में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की स्मृति में एक स्तूप वैशाली में बनवाया गया था। किन्तु अभी तक इस स्तूप के कोई चिन्ह व भग्नावशेष प्राप्त नहीं किये जा सके । तथापि मथुरा के समीप एक अत्यन्त प्राचीन जैन स्तूप के प्रचुर भग्नावशेष मिले हैं । हरिषेण कृत वृहत्कथाकोष (१२, १३२) के अनुसार यहाँ अति प्राचीनकाल में विद्याधरों द्वारा पांच स्तूप बनवाये गये थे। इन पांच स्तूपों को विख्याति और स्मृति एक मुनियों की वंशावली से संबद्ध पाई जाती है । पहाड़पुर (बंगाल) से जो पांचवी शताब्दी का गुहनंदि प्राचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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