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________________ २८४ जैन कला ने मानव जीवन की जो धाराएं व्यवस्थित की है, उनकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता है । मुनिधर्म के द्वारा एक ऐसे वर्ग की स्थापना का प्रयत्न किया गया है जो सर्वथा निःस्वार्थ, निस्पृह और निरीह होकर वीतराग भाव से अपने व दूसरों के कल्याण में ही अपना समस्त समय व शक्ति लगावे । साथ ही गृहस्थ धर्म की व्यवस्थाओं द्वारा उन सब प्रवृत्तियों को यथोचित स्थान दिया गया हैं, जिनके द्वारा मनुष्य सभ्य और शिष्ट बनकर अपनी, अपने कुटुम्ब की, तथा समाज व देश की सेवा करता हुआ उन्हें उन्नत बना सके । दया दान व परोपकार के श्रावकधर्म में यथोचित स्थान का निरुपण जैन-चारित्र के प्रकरण में किया जा चुका है । जैन परम्परा में कला की उपासना को जो स्थान दिया गया हैं, उससे उसका यह विधान पक्ष और भी स्पष्ट हो जाता है। कला के भेद-प्रभेद प्राचीनतम जैन आगम में बालकों को उनके शिक्षण-काल में शिल्पों और कलाओं की शिक्षा पर जोर दिया गया है, और इन्हें सिखाने वाले कलाचार्यों व शिल्पाचार्यों का अलग-अलग उल्लेख मिलता हैं । गृहस्थों के लिये जो षट्कर्म बतलाये गये हैं उनमें मसि, कृषि, विद्या व वाणिज्य के अतिरिक्त शिल्प का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। जैन साहित्य में स्थान-स्थान पर बहत्तर कलाओं का उल्लेख पाया जाता है । समवायांग सूत्र के अनुसार ७२ कलाओं के नाम ये हैं-१ लेख, २ गणित, ३ रुप, ४ नृत्य, ५ गीत, ६ वाद्य, ७ स्वरगत, ८ पुष्करगत, ६ समताल, १. धूत, ११ जनवाद, १२ पोक्खच्चं, १३ अष्टापद, १४ दगमट्टिय (उदकमृत्तिका), १५ अन्नविधि, १६ पानविधि, १७ वस्त्रविधि, १८ शयन विधि, १९ अज्ज (आर्या), २० प्रहेलिका, २१ मागधिका, २२ गाथा, २३ श्लोक, २४ गंधयुक्ति, २५ मधुसिक्थ, २६ आभरण विधि, २७ तरुणीप्रतिकर्म, २८ स्त्रीलक्षण, २६ पुरुषलक्षण, ३० हयलक्षण, ३१ गजलक्षण, ३२ गोण (वृषभ लक्षण), ३३ कुक्कुटलक्षण, ३४ मेंढालक्षण, ३५ चक्रलक्षण, ३६ छत्रलक्षण, ३७ दंडलक्षण, ३८ असिलक्षण, ३६ मणिलक्षण, ४० काकनिलक्षण, ४१ चर्मलक्षण, ४२ चंद्रलक्षण, ४३ सूर्यचरित, ४४ राहुचरित, ४५ ग्रहचरित, ४६ सौभाग्यकर, ४७ दुर्भाग्यकर, ४८ विद्यागत, ४६ मन्त्रगत, ५० रहस्यगत, ५१ सभास, ५२ चार, ५३ प्रतिचार, ५४ व्यूह, ५५ प्रतिव्यूह, ५६ स्कंधावारमान, ५७ नगरमान, ५८ वास्तुमान, ५६ स्कंधावारनिवेश, ६: वास्तुनिवेश, ६१ नगरनिवेश, ६२ ईसत्थं (इष्वस्त्र), ६३ छरुप्पवायं (सरूप्रवाद), ६४ अश्वशिक्षा, ६५ हस्तिशिक्षा, ६६ धनुर्वेद, ६७ हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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