________________
२६२
जैन दर्शन
त्याग करना चाहिये । इन तीन व्रतों के अभ्यास से मूलव्रतों के गुणों की वृद्धि होती है। और इसीलिये इन्हें गुणवत कहा गया हैं।
चार शिक्षावत
गृहस्थ को सामयिक का भी अभ्यास करना चाहिये । सामयिक का अर्थ है-समताभाव का आह्वान । मनकी साम्यावस्था वह है जिसमें हिंसादि समस्त पापवृत्तियों का शमन हो जाय । इसीलिये सामायिक की अपेक्षा समस्त व्रत एक ही कहे गये हैं, और इसी पर महावीर से पूर्व के तीर्थंकरों द्वारा जोर दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं। इस भावना के अभ्यास के लिए गृहस्थ को प्रतिदिन प्रभात, मध्याह्न सायंकाल आदि किसी भी समय कम से कम एक बार एकान्त में शान्त और शुद्ध वातावरण में बैठकर, अपने मन को सांसारिक चिन्तन से निवृत्त करके, शुद्ध ध्यान अथवा धर्म-चिन्तन में लगाने का आदेश दिया गया है । इसे ही व्यवहार में जैन लोग सन्ध्या कहते हैं। खान-पान व गृह-व्यापारादि का त्यागकर देव-वन्दन पूजन तथा जप व शास्त्र-स्वाध्याय आदि धार्मिक क्रियाओं में ही दिन व्यतीत करना प्रोषधोपवास कहलाता है। इसे गृहस्थ यथाशक्ति प्रत्येक पक्ष की अष्टमी-चतुर्दशी को करे, जिससे उसे भूख प्यास की वेदना पर विजय प्राप्त हो । प्रतिदिन के आहार में से विशेष प्रकार खट्टे-मीठे रसों का, फल-अन्नादि वस्तुओं का तथा वस्त्राभूषण शयनासन व वाहनादि के उपयोग का त्याग करना व सीमा बाँधना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है । अपने गृह पर आये हुए मुनि आदि साधुजनों को सत्कार पूर्वक आहार औषधि आदि दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है। ये चारों शिक्षावत कहलाते हैं; क्योंकि इनसे गृहस्थ को धार्मिक जीवन का शिक्षण व अभ्यास होता है । सामान्य रूप से ये सातों व्रत सप्तशील या सप्त शिक्षापद भी कहे गये हैं। इन समस्त व्रतों के द्वारा जीवन का परिशोधन करके गृहस्थ को मरण भी धार्मिक रीति से करना सिखाया गया है । सल्लेखना
महान् संकट, दुर्भिक्ष, असाध्य रोग, व वृद्धत्व की अवस्था में जब साधक को यह प्रतीत हो कि वह उस विपत्ति से बच नहीं सकता, तब उसे कराह-कराह कर व्याकुलता पूर्वक मरने की अपेक्षा यह श्रेयस्कर है कि वह क्रमशः अपना आहारपान इस विधि से घटाता जावे जिससे उसके चित्त में क्लेश व व्याकुलता उत्पन्न न हो; और वह शान्तभाव से अपने शरीर का उसी प्रकार त्याग कर सके; जैसे कोई धनी पुरुष अपने गृह को सुख का साधन समझता हुआ भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org