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________________ श्रावक धर्म मैत्री आदि चार भावनाएं उपर्युक्त व्रतों के परिपालन योग्य मानसिक शुद्धि के लिये ऐसी भावनाओं का भी विधान किया गया है, जिनसे उक्त पापों के प्रति अरुचि और सदाचार के प्रति रुचि उत्पन्न हो । व्रती को बारम्बार यह विचार करते रहना चाहिये कि हिंसादिक पाप इस लोक और परलोक में दुःखदायी हैं; और उनसे जीवन में बड़े अनर्थ उत्पन्न होते हैं, जिनके कारण अन्ततः वे सब सुख की अपेक्षा दुःख का ही अधिक निर्माण करते हैं । उक्त पापों के प्रलोभन का निवारण करने के लिये संसार के व शरीर के गुणधर्मों को क्षणभंगुरता की ओर भी ध्यान देते रहना चाहिये, जिससे विषयों के प्रति आसक्ति न हो और सदाचारी जीवन की ओर आकर्षण उत्पन्न हो । जीवमात्र के प्रति मैत्री भावना, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दीन-दुखियों के प्रति कारुण्य, तथा विरोधियों के प्रति रागद्वेष व पक्षपात के भाव से रहित माध्यस्थ-भाव, इन चार वृत्तियों का मन को अभ्यास कराते रहना चाहिये, जिससे तीव्र रागद्वेषात्मक अनर्थकारी दुर्भावनाएं जागृत न होने पावें । इन समस्त व्रतों का मन से, वचन से, काय से परिपालन करने का अनुरोध किया गया है और उनके द्वारा त्यागे जाने वाले पाप को केवल स्वयं न करने की प्रतिज्ञा मात्र नहीं, किन्तु अन्य किसी से उन्हें कराने व किये जाने पर उस कुकृत्य का अनुमोदन करने के विरूद्ध भी प्रतिज्ञा अर्थात् उनका कृत, कारित व अनुमोदित तीनों रूपों में परित्याग करने पर जोर दिया गया है । इस प्रकार इस नैतिक सदाचार द्वारा जीवन को शुद्ध और समाज को सुसंस्कृत बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है । २६१ तीन गुणव्रत उक्त पाँच मूलव्रतों के अतिरिक्त गृहस्थ के लिये कुछ अन्य ऐसे व्रतों का विधान भी किया गया है कि जिनसे उसकी तृष्णा व संचयवृत्ति का नियंत्रण हो, इन्द्रिय- लिप्सा का दमन हो, और दानशीलता जागृत हो । उसे चारों दिशाओं में गमनागमन, आयात-निर्यातादि की सीमा बाँध लेनी चाहिये -- यह दिव्रत कहा गया है । अल्पकाल मर्यादा सहित दिग्वत के भीतर समुद्र, नदी, पर्वत, पहाड़ी, ग्राम व दूरी प्रमाण के अनुसार सीमाएं बांधकर अपना व्यापार चलाना चाहिये, यह उसका देशव्रत होगा । पापात्मक चिन्तन व दूसरों को अस्त्र-शस्त्र, विष, बन्धन आदि ऐसी वस्तुओं का दान, स्वयं उपयोग नहीं करना चाहता, अनर्थदण्ड कहा गया है, जिनका Jain Education International For Private & Personal Use Only उपदेश तथा जिनका वह गृहस्थ को www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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