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श्रावक धर्म
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इसके पालन में गृहस्थ के अणुव्रत की सीमा यह है कि यदि स्नेह या मोहवश तथा स्व-पर-रक्षा निमित्त असत्य भाषण करने का अवसर आ जाय, तो वह उससे विशेष पाप का भागी नहीं होता, क्योंकि उसकी भावना मूलतःदूषित नहीं है; और पाप-पुण्य विचार में द्रव्यक्रिया से भावक्रिया का महत्व अधिक है । किन्तु झूठा उपदेश देना, किसी की गुप्त बात को प्रकट कर देना, झूठे लेख तैयार करना, किसी की धरोहर को रखकर भूल जाना या उसे कम बतलाना, अथवा किसी की अंग-चेष्टाओं व इशारों आदि से समझकर उसके मन्त्र के भेद को खोल देना, ये पाँच इस व्रत के अतिचार हैं, जो स्पष्टत: सामाजिक जीवन में बहुत हानिकर हैं। सत्यव्रत के परिपालन के लिये जिन पांच भावनाओं का विधान किया गया है वे हैं-क्रोध, लोभ, भीरुता, और हंसी-मज़ाक इन चार का परित्याग, तथा भाषण में औचित्य रखने का अभ्यास।
अस्तेयाणुव्रत व उसके अतिचार
बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ले लेना अदत्तादान रूप स्तेय या चोरी है । अणुव्रती गृहस्थ के लिये आवश्यक मात्रा में जल-मृत्तिका जैसी उन वस्तुओं को लेने का निषेध नहीं, जिन पर किसी दूसरे का स्पष्ट अधिकार व रोक न हो । महाव्रती मुनि को तिल-तुष मात्र भी बिना दिये लेने का निषेध है । स्वयं चोरी न कर दूसरे के द्वारा चोरी कराना, चोरी के धन को अपने पास रखना, राज्य द्वारा नियत सीमाओं के बाहर वस्तुओं का आयात-निर्यात करना, मापतौल के बांट नियत परिणाम से हीनाधिक रखना, और नकली वस्तुओं को असली के बदले में चलाना- ये पांच अचौर्य अणुव्रत के अतिचार हैं, जिनका गृहस्थ को परित्याग करना चाहिये । मुनि के लिये तो यहां तक विधान किया गया है कि उन्हें केवल पर्वतों की गुफाओं में व वृक्षकोटर या परित्यक्त घरों में ही निवास करना चाहिये। ऐसे स्थान का ग्रहण भी न करना चाहिये जिसमें किसी दूसरे के निस्तार में बाधा पहुँचे। भिक्षा द्वारा ग्रहण किये हुए अन्न में यहां तक शुद्धि का विचार रखना चाहिये कि वह आवश्यक मात्रा से अधिक न हो । मुनि अपने सहधर्मी साधुओं के साथ मेरे-तेरे के विवाद में न पड़े । इस प्रकार इस व्रत द्वारा व्यापार में सचाई और ईमानदारी तथा साधु-समाज में पूर्ण निस्पृहता की स्थापना का प्रयत्न किया गया है । वह्यचर्याणुव्रत व उसके अतिचार
स्त्री-अनुराग व कामक्रीड़ा के परित्याग का नाम अव्यभिचार या ब्रह्मचर्य व्रत है । अणुव्रती श्रावक या श्राविका अपने पति-पत्नी के अतिरिक्त शेष समस्त
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