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जैन दर्शन
की जाती है, वह संकल्पी हिंसा है । इन चार प्रकार की हिंसाओं में से गृहस्थ, व्रतरूप से तो केवल संकल्पी हिंसा का ही त्यागी हो सकता है । शेष तीन प्रकार की हिंसाओं में उसे स्वयं अपनी परिस्थिति और विवेकानुसार संयम रखने का उपदेश दिया गया है।
अहिंसाणुव्रत के अतिकार
प्राणघात के अतिरिक्त अन्य प्रकार पीड़ा देकर हिंसा करने के अनेक प्रकार हो सकते हैं, जिनसे बचते रहने की व्रती को आवश्यकता है । विशेषतः परिजनों व पशुओं के साथ पांच प्रकार की क्रूरता को अतिचार (अतिक्रमण) कहकर उनका निषेध किया गया है--उन्हें बांधकर रखना, दंडों, कोड़ों आदि से पीटना, नाक-कान आदि छेदना-काटना, उनकी शक्ति से अधिक बोझा लादना, व समय पर अन्न-पानी न देना । इन अतिचारों से बचने के अतिरिक्त, अहिंसा के भाव को दढ़ करने के लिये पांच भावनाओं का उपदेश दिया गया है-अपने मन के विचारों, वचन-प्रयोगो, गमनागमन, वस्तुओं को उठाने रखने तथा भोजन-पान की क्रियाओं में जागरूक रहना । इस प्रकार जैनशास्त्र-प्रणीत हिंसा के स्वरूप तथा अहिंसा व्रत के विवेचन से स्पष्ट है कि इस व्रत का विधान व्यक्ति को सुशील, सुसभ्य व समाजहितैषी बनाने, और उसे अनिष्टकारी प्रवृत्तियों से रोकने के लिये किया है, और इस संयम की आज भी संसार में अत्यधिक आवश्यकता है। जिस प्रकार यह व्रत व्यक्ति के आचरण का शोधन करता है, उसी प्रकार वह देश और समाज की नीति का अंग बनकर संसार में सुख और शान्ति की स्थापना कराने में भी सहायक हो सकता है । अहिंसा के इसी सद्गुण के कारण ही यह सिद्धान्त जैन व बौद्ध धर्मों तक ही सीमित नहीं रहा, किन्तु वह वैदिक परम्परा में भी आज से शताब्दियों पूर्व प्रविष्ट हो चुका है, तथा एक प्रकार से समस्त देश पर छा गया है; और इसीलिये हमारे देश ने अपनी राजनीति के लिये अहिंसा को आधारभूत सिद्धान्तरूप से स्वीकार किया है ।
सत्याणवत व उसके अतिचार
असद् वचन बोलना-अनृत, असत्य, मृषा या झूठ कहलाता है। असत् का अर्थ है जो सत् अर्थात् वस्तुस्थिति के अनुकूल एवं हितकारी नहीं है। इसीलिये शास्त्र में कहा गया है सत्यं बयात, प्रियं ब्र यात्, न ब्रूयात् सत्यप्रियम् । अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो, सत्य को इस प्रकार मत बोलो कि वह दूसरे को अप्रिय हो जाय । इस प्रकार सत्य-भाषण व्रत की मूल भावना आत्म-परिणामों की शुद्धि तथा स्व व परकीय पीड़ा व अहित रूप हिंसा का निवारण ही हैं ।
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