SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ जैन दर्शन एकान्त को मिथ्यात्व कहा गया है, और सिद्धान्त के प्रतिपादन में ऐसी वचनशैली के उपयोग का प्रतिपादन किया गया है, जिससे वक्ता का एक-गुणोल्लेखात्मक अभिप्राय भी प्रगट हो जाय; और साथ ही यह भी स्पष्ट बना रहे कि वह गुण अन्य-गुण-सापेक्ष है । जैन दर्शन की यही विचार और वचनशैली अनेकान्त व स्याद्वाद कहलाती है। वक्ता के अभिप्रायानुसार एक ही वस्तु है भी कही जा सकती है; और नहीं भी। दोनों अभिप्रायों के मेल से हां-ना एक मिश्रित वचनभंग भी हो सकता है; और इसी कारण उसे अवक्तव्य भी कह सकते हैं । वह यह भी कह सकता है कि प्रस्तुत वस्तुस्वरूप है भी और फिर भी अवक्तव्य हैं नहीं है, और फिर भी अवक्तव्य है; अथवा है भी, नहीं भी है, और फिर भी अवक्तव्य है। इन्हीं सात सम्भावनात्मक विचारों के अनुसार सात प्रमाणभंगियां मानी गयी हैं-स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति, स्याद् अस्ति-नास्ति, स्याद् अवक्तव्यम् स्याद् अस्ति-अवक्तव्यम्, स्याद्-नास्ति-अवक्तव्यम् और स्याद् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यम् । सम्भवतः एक उदाहरण के द्वारा इस स्याद्वाद शैली की सार्थकता अधिक स्पष्ट की जा सकती है। किसी ने पूछा आप ज्ञानी हैं ? इसके उत्तर में इस भाव से कि मैं कुछ न कुछ तो अवश्य जानता ही हूँ-मैं कह सकता हूँ कि "मैं स्याद् ज्ञानी हूं।" सम्भव है मुझे अपने ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान का भान अधिक हो और उस अपेक्षा से मैं कहूं कि "मैं स्याद् अज्ञानी हूँ" कितनी बातों का ज्ञान हैं, और कितनी का नहीं है; अतएव यदि मैं कहूं कि "मैं स्याद् ज्ञानी हँ भी और नहीं भी;" तो भी अनुचित न होगा; और यदि इसी दुविधा के कारण इतना ही कहूं कि "मैं कह नहीं सकता कि मैं ज्ञानी हूं या नहीं" तो भी मेरा वचन असत्य न होगा । इन्हीं आधारों पर मैं सत्यता के साथ यह भी कहता हूं कि "मुझे कुछ ज्ञान है तो, फिर भी कह नहीं सकता कि आप जो बात मुझसे जानना चाहते हैं, उस पर मैं प्रकाश डाल सकता हूं या नहीं।" इसी बात को दूसरे प्रकार से यौ भी कह सकता हूं कि "मैं ज्ञानी तो नहीं हूँ, फिर भी सम्भव है कि आपकी बात पर कुछ प्रकाश डाल सकू"; अथवा इस प्रकार भी कह सकता हूं कि "मैं कुछ ज्ञानी हूं भी, कुछ नहीं भी हूं; अतएव कहा नहीं जा सकता कि प्राकृत विषय का मुझे ज्ञान है या नहीं।" ये समस्त वचन-प्रणालियां अपनी-अपनी सार्थकता रखती है, तथापि पृथक्-पृथक् रूप में वस्तुस्थिति के एक अंश को ही प्रकट करती हैं; उसके पूर्ण स्वरूप को नहीं। इसलिये जैन न्याय इस बात पर देता है कि पूर्वोक्त में से अपने अभिप्रायानुसार वक्ता चाहे जिस वचन-प्रणाली का उपयोग करे, किन्तु उसके साथ स्यात् पद अवश्य दे, जिससे यह स्पष्ट प्रकट होता रहे कि वस्तुस्थिति में अन्य संभावनायें भी हैं, प्रतः उसकी बात सापेक्ष रूप से ही समझी जाय । इस प्रकार यह स्याद्वाद प्रणाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy